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________________ नैष्ठिकाचार २९३ तो नियम से उसे मार्गभ्रष्ट होना पड़ेगा। त्याग का यह क्रम उसे उस पवित्र स्थिति में पहुँचा देता है, जिसकी आकांक्षा से वह इस मार्ग पर आया था। वह खेत, जमीन, मकान, बाग, कुआँ, बावड़ी, सोना, चाँदी, मोती, माणिक, रुपया, पैसा, नोट, चेक, हुंडी, कंपनियों के शेयर, वस्त्र, अन्य अनेक प्रकार की व्यापारिक वस्तुएँ, शस्त्रास्त्र, गाड़ी, मोटर, साइकिल, तांगा, घोड़ा, गाय, भैस, बकरी, पक्षी, नौकर-चाकर, सेविकाएँ, अनेक धातुओं के वर्तन,आभूषण, तथा काष्ठ के धातु के अथवा अन्य पदार्थों के बने हुये सामान को परिग्रह मान कर परित्याग करता है। वह इन बाह्य परिग्रहों की तरह इनके मूल कारणभूत मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ और नव नोकषाय ऐसे १४ प्रकार के अन्तरंग परिग्रहों को भी जो अनादिकाल से ही जीव के स्वभ्रमण के लिए तथा नाना प्रकार के पर पदार्थों के सञ्चय के लिए अथवा कामादि विकार के उत्पादक होने से तनिमित्त स्त्री आदि के ग्रहणरूप कायरता के लिए हेतुभूत हैं, त्याग देता है। इन आन्तरिक परिग्रहों के त्याग किए बिना बाह्य परिग्रहण का त्याग संभव नहीं है। इनकी विद्यमानता से बाह्य परिग्रह का सञ्चय स्वयं हो जाता है। इसलिए अन्तरंग परिग्रह का त्याग का क्रम ही प्रतिमा धारण है। प्रथम मिथ्यात्व का वमन कर सम्यग्दर्शन को स्वीकार किया था। तदनन्तर अभक्ष्य अन्याय सप पदार्थों और कार्यों से राग घटाया था। तदनन्तर क्रोधादि कषायों पर विजय पर विजय प्राप्त करने के लिए अणुव्रत दिग्वत देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत आदि का तथा सामायिक आदि साम्यभाव पूर्वक व्रतों का आश्रय किया था। वेद की वेदना को दूर करने हेतु ब्रह्मचर्य धारण किया था। परिग्रह की प्रीति घटाने और अपनी कायरता दूर करने के लिए आरंभ त्याग किया था। अब वह समय आ गया है जिसने आन्तरिक कषाय भावों की न्यूनता होने से परिगृहीत परिग्रह के त्याग के लिए साहस उत्पन्न कर दिया। नवम प्रतिमावाला अत्यन्त वैराग्यभावनासंपन्न होता है। परिग्रह को भारवत् समझता है। वह अपने को उस भार से मुक्त होने के लिए आकुलित है। अपने शरीराच्छादन मात्र के हेतु सामान्यतः लंगोटी, धोती, ओढ़ने के एक दो वस्त्र और चटाई आदि पदार्थ ही अपने पास रखता है। शौच के लिए एक तथा भोजनादि के लिए १-२ वर्तन लोटा थाली गिलास आदि रखकर अन्य सब का त्याग कर देता है। अत्यल्प परिग्रही होने से इसका नाम परिग्रहत्याग प्रतिमा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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