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________________ २८६ श्रावकधर्मप्रदीप को तैयार करने के लिए बाध्य न करे। जिह्वा इन्द्रिय को वश में रखकर उदर पूरणमात्र के लिए सदा अल्पमूल्य का आहार ग्रहण करे। यदि कोई प्रीति पूर्वक आमंत्रण न करे तो स्वयं भोजन बनाकर करे और धर्मस्नेह पूर्वक अपना कल्याण समझकर धर्मोपदेश तथा धर्म प्रभावना के कार्य करे। ब्रह्मचारी यह अनुभव कभी न करे कि हम धर्मोपदेश देकर जनता का उपकार करते हैं, अतः हमारे प्रति इनको कृतज्ञ होना चाहिए। बिना किसी लौकिक वांछा के दिया गया धर्मोपदेश कल्पवृक्ष के समान उन्नति के पद पर पहुँचा देता है। इसके विपरीत धनलाभ, वस्तुलाभ, भोजनलाभ, वस्त्रलाभ, कीर्तिलाभ आदि किसी प्रयोजन के निमित्त किया गया उपदेश उपदेश नहीं मात्र आजीविका है। इस प्रकार के परमार्थसेवी ब्रह्मचारियों की सेवा ही समाज को उन्नत बनाने में समर्थ है। पूर्वकाल में यह कार्य तपस्वी साधुओं द्वारा होता था। काल की हीनता से दि० जैन मुनियों का प्रायः अभाव सा हो गया। श्रावको का स्वयं खान पान शुद्ध न होने से साधुओं की चर्या कठिन हो गयी। यदि कदाचित् साधुओं का क्वचित् विहार होता है तो चर्याहेतु शुद्ध आहार खास तौर पर बनाना पड़ता है जिससे उद्दिष्टाहार का दोष साधुओं को प्राप्त होता है। यह दोष श्रावकाश्रित है अतः श्रावक के निमित्त से आज कल मुनिधर्म को दोष प्राप्त होता है। निरारंभी साधु के विहार में कठिनता होने से अल्पारंभी ब्रह्मचारी श्रावक ही यदि यत्र तत्र भ्रमण करें और धर्म प्रभावना करें तथा स्वाध्याय द्वारा स्वयं को भी धर्म से प्रभावित करें और अन्य को भी उपदेश दें तो धर्म की बहुत बड़ी अभिवृद्धि तथा स्थिरता रह सकती है। ब्रह्मचारी का पद उदासीन का पद है। उदासीन का अर्थ संसार व विषय भोगों से विरक्त होना है, धर्म और धर्मसेवा से उदासीन होने का नहीं। उससे 'उदासीन' तो मिथ्यादृष्टि होता है। सम्यग्दृष्टि तो धर्म में धर्म के हेतु जुटाने में उसके कार्यों में तथा धर्मात्माओं में सदा सोत्साह रहता है। अतः प्रीतिपूर्वक पालन करना चाहिये। ___अपने व्रत को अक्षुण्ण रखने के लिए कुछ और भी विचार आवश्यक है। १-स्त्रियों के निवासस्थल पर निवास न करे। २-उनसे प्रेमालाप न करे। ३-उनका बार-बार निरीक्षण न करे। ४-संगीतादि का श्रवण न करे। ५-धार्मिक उत्सवों को छोड़कर बाजार व मेले-ठेले में न घूमे। ६-किसी के शृंगारादि का अवलोकन राग भाव से न करे। ७-स्वयं किसी प्रकार का शृंगारादि न करे। ८-स्त्री-पुरुषों के द्वारा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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