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________________ २८२ श्रावकधर्मप्रदीप रागवृद्धिः। प्रातिकूल्येन प्रवृत्तौ च द्वेषः। इति रागद्वेषमूलौ किल इष्टसंयोगानिष्टसंयोगौ भावसंसारस्य कारणभूतौ। कामावेशात् मलमूत्रोत्पादकं मलमूत्रस्थानभूतमपि शरीराङ्गं अवाञ्छनीयमपि वांछति। तत्रैव मुह्यते। जन्मपूर्वकं हि मरणं। जन्ममरणयोर्जन्म एवानिष्टम्; तस्यैव बाल्ययुवाप्रौढजरावस्थाकीर्णदुःखहेतुत्वाङ्गीकारात् । मरणन्तु तद्वत् नानिष्टम् । तत्तु एतज्जन्मसंबंधिदुःखमोचनहेतुः मुक्तेरपि हेतुरित्यभ्युपगमात् कामाङ्गभूतैरेवाङ्गैर्जन्मसम्भवात् ।अतः निश्चीयते यत्संसारदुःखकारणभूतजन्महेतुकामविकारेणैव दुःखानां परम्परा प्राप्यते। एतद्विचार्य यः स्वशक्तिमवलम्ब्य जन्ममरणभवभीतः न कदाचिदपि अधीरतां भजति न मैथुनमुपसेवते, स्वप्नेऽपि न स्त्री पुरुषं वा अभिवाञ्छति सः खलु ब्रह्मचारी। भोगोपभोगयोः कामभोगस्य प्रधानता वर्तते। तत्त्यागिनः भोगोपभोगपरिमाणव्रतं भवति। पुत्रार्थमेव परिग्रहस्यातिसञ्चयो भवति। स्त्रीमात्रत्यागात्तु न सन्तानस्य अभिवृद्धिर्भवति, तदनभिवृद्धेर्न परिग्रहातिसञ्चयः सञ्जायते। परिग्रह एव पापस्य मूलं इति तदभावे पापस्यापि क्षीणता जायते। तस्मादादेयं ब्रह्मव्रतम् । सप्तमप्रतिमाधारकस्य विशेषतः संसाराद् भीरुता संवेगश्च भवति। संवेगवैराग्याभ्यां कर्मनिर्जरा स्यात् । साधुपदारोहणाय ब्रह्मव्रतं किल बीजभूतमस्ति। बीजेन विना यथा नान्नमुत्पद्यते तथैव ब्रह्मचर्यं विना न मुनिपदयोग्यव्रताङ्कुरा उत्पद्यन्ते। तस्मात् सत्प्रयत्नतः अष्टादशसहस्रशीलसम्पादकं ब्रह्मव्रतमङ्गीकार्यम् ।२०७। सातवी प्रतिमा ब्रह्मचर्य व्रत प्रतिमा है। छठी प्रतिमा में ही श्रावक ने यह अच्छी तरह समझ लिया था कि स्त्री परिग्रह हेय है। तथापि सर्वथा त्याग में असमर्थ होने से क्रमशः त्याग का मार्ग अंगीकार किया था। जिस ब्रह्मचर्य का साङ्गोपांग पालन वह छठी प्रतिमा में मात्र दिन को करता था, उसी ब्रह्मचर्य को अब रात्रि दिन स्वीकार करता है। विषय भोग भुजंग के समान हैं। जैसे भुजंग डस लेता है उसी तरह विषय भी प्राणी को डस लेते हैं और उसके धर्मरूप प्राण नष्ट हो जाते हैं। जैसे स्वर्ण के समान उज्ज्वल वर्ण अग्नि में आगत पतंग भस्म हो जाता है उसी तरह स्वर्णकाय स्त्री या पुरुष प्रतिमा को काम के वशीभूत होकर यह प्राणी अपना कर संसार के महान् ताप से संतप्त होता है। संयोग दुःख मूलक है। यद्यपि संयोग को लोग इष्ट मानते हैं, और वियोग को अनिष्ट, तथापि यह तो सुनिश्चित है कि संयोग पूर्वक ही वियोग होता है। पुत्र वियोग का दुःख उसे होगा जिसके पुत्र हो। धन चोरी चले जाने का दुःख उसे होगा जिसे धन का संयोग हुआ हो। स्त्री-पुरुष का संयोग ही सन्तान परम्परा का उत्पादक है जो द्रव्यरूप संसार है तथा उनके संयोग के मूलहेतुभूत रागादि परिणाम हैं जो भावसंसार के उत्पादक हैं। पुत्र पौत्रादि की अनुकूल प्रवृत्ति हो तो उनमें रागभाव बढ़ता है। यदि प्रतिकूल प्रवृत्ति हो तो द्वेष बढ़ता है। इस प्रकार इष्ट संयोग और अनिष्ट संयोग रागद्वेष के हेतु हैं और रागद्वेष ही हमें संसार परिभ्रमण के हेतुभूत हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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