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________________ २७२ श्रावकधर्मप्रदीप श्रावक को यह समझ कर बैठना है कि मैं इतने समय के लिए मुनि हूँ। मेरे पाँचों पापों का यद्यपि पूर्णतया त्याग नहीं है तो भी सामायिक के काल तक मैं सर्वदिशाओं में आवागमन का तथा पाँचों पापों का सर्वथा त्याग करता हूँ। दुष्टविचारों का, दुष्टवचनों का तथा कार्य संबंधी अन्य सम्पूर्ण कार्यों का मुझे त्याग है। मुनि के समान ही साम्यभाव के धारक उस श्रावक के सामायिक काल में यदि चोर चोरी करता हो, पुत्र मरण को प्राप्त हो जाय, स्त्रीवियोग हो जाय, गृहदाह हो जाय, कठिनतर उपसर्ग सामने आ जाय, वज्रपात हो जाय और सर्पादि दुष्ट जन्तु शरीरपर आ जाय तो भी सामायिक से विचलित नहीं होता। विचलित न होने का यह अर्थ है कि वह चित्त में विकल्प उत्पन्न नहीं करता। वह धन कुंटुंब और विषयों से तथा शरीर से भी उतने काल निर्मोही है। स्थिति तो यथार्थ में ऐसी ही होनी चाहिए। तब ही अनास्रवण अर्थात् संवर और निर्जरा होती है। ___ सामायिक एकान्त में, जनकोलाहलशून्य और बाधा रहित स्थान में करनी चाहिए। इस नियम का तात्पर्य ही यह है कि चित्त की चञ्चलता के कारण पहले ही दूर कर दे। फिर भी यदि उक्त कारण आ पड़े तो चित्त को ग्लानियुक्त न करे। स्थान छोड़े नहीं, शरीर मोड़े नहीं। कठिन से कठिन हानि को समता पूर्वक सह ले। इस समय एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि अनेक प्रतिभावान् सज्जन जो तीसरी प्रतिमा के धारी हैं अथवा उससे भी अधिक प्रतिमाओं का पालन करते हैं; ग्यारहवीं प्रतिमा धारण कर जिन्होंने क्षुल्लक व्रत भी धारण किए हैं अथवा ऐलक हैं, आर्यिकाएँ या क्षुल्लिकाएँ हैं अथवा दिगम्बर मुनि हैं। इनमें जो रेल, मोटर, वायुयान आदि द्वारा यात्रा करते हैं वे सामायिक उन सवारियों में ही करते हैं या समय चले जाने पर किसी भी अन्य समय में सामायिक करते हैं सो यह उचित है या नहीं। उत्तर इसका सहज है। यह प्रश्न ही इस बात का सूचक है कि सामायिक के स्वरूप को देखते हुए यात्रा में (रेल मोटर आदि में) सामायिक नहीं हो सकती और चूँकि ज्ञानवान् विद्वान् त्यागी वर्ग भी रेल में सामायिक करता है तब उसके परिणाम स्थिर कैसे रह सकते हैं। यथार्थ में सामायिक प्रतिमावाले को अपनी सामायिक को प्रमुख मानकर अन्य काल में ही रेलयात्रा आदि करनी चाहिए। भले ही ऐसा करने में समय अधिक लगे, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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