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________________ श्रावकधर्मप्रदीप (४) मात्सर्य - वह दोष है जो गृहस्थ को स्वेच्छा से दान न देने पर भी दूसरे की ईर्ष्या से उसके दान देने पर होता है। अनेक श्रावक अपने अन्य सहधर्मी भाइयों को दान देते हुए देखकर उत्साहित होकर स्वयं दान में प्रवृत्त होते हैं, उनको यह अतिचार या दोष नहीं है। जो श्रावक देना नहीं चाहते पर अपने प्रतिपक्षी दूसरे श्रावक को दान करते देख और उसकी कीर्ति बढ़ते देखकर उसे नीचा दिखाने के अभिप्राय से उससे बढ़कर दान देने को प्रस्तुत हो जाते हैं उनका यह भाव मात्सर्य नामक दोष है। इस प्रकार का दान यद्यपि दान की पद्धति से दिया गया है तथापि मूल भावना में ईर्ष्या होने से दान सदोष है। २६६ (५) कालातिक्रम - समय पर दान न देकर असमय में देना । आहार निमित्त साधु के आने व उसके प्रतिग्रहण कर लेने पर आहारादि के तैयार होने के लिए समय देने के अभिप्राय से अथवा स्वयं को अन्य कार्य की आवश्यकता होने के कारण साधु के पूजनादि कार्यों में इतना समय लगा देना कि जिससे आहार का काल उल्लंघन हो जाय तो यह कालातिक्रम नाम का पाँचवाँ अतिचार है। अनादर से दान देना तथा दान देने की विधि, समय, योग्यता और विशुद्धि आदि को भूल जाना भी दान के अतिचार हैं। इनका भी उल्लेख परव्यपदेश और कालातिक्रम के स्थान पर किन्हीं आचार्यों ने किया है। दान के वे भी अतिचार हैं। विवेकी श्रावक दाता के सप्त गुणों को धारण करके दान दे तो उक्त अतिचारादि दोष प्राप्त नहीं होते। ये दोष दाता के लिए दुःखदायक हैं, अतः दान के पूर्ण फल को प्राप्त कर जो सुखी बनना चाहते हैं उन्हें अतिचारादि दोष दूर कर व्रतों को निर्दोष बनाना चाहिए। आहारदान की प्रधानता से कहे गए इन अतिचारों की औषधि, आवास और शास्त्र दान में भी यथायोग्य रीति से संभावना कर उनसे बचना चाहिए । २०१ । उपसंहार द्वादशव्रतचिह्नानि तदतीचारकाश्च ये । ज्ञातास्ते वद मे शेषप्रतिमालक्षणं गुरो ।। हे गुरुदेव! श्रावक के १२ व्रतों का स्वरूप तथा उनके अतिचार मैंने अच्छी तरह ज्ञात कर लिए हैं। अब श्रावक की शेष ९ प्रतिमाओं का क्या स्वरूप है, तथा उनकी परस्पर क्या विशेषता है, कृपाकर मुझे बतावें । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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