SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८ श्रावकधर्मप्रदीप सम्यग्दृष्टियों को उनके सम्यग्दर्शन व्रत और क्रियाओं के लिए साधनभूत साधनों का देना, अथवा उनके व्रतों में बाधक कारणों को दूर करना दान है। जैसे___ आजीविका रहित गृहस्थ को आजीविका के अहिंसक साधन प्रदान करना, अन्नादि देना, व्यापार को पूँजी देना आहारदान है। बीमारी की स्थिति में औषधियों द्वारा व वैद्य द्वारा सहायता पहुँचाना, उसकी शारीरिक सेवा टहल करना औषधिदान है। भोजनालय और औषधालय द्वारा सर्वसाधारण क्षुधित और रोगियों की सेवा करुणादान है। सज्ज्ञान वर्धक पुस्तकें देना, पठन-पाठन के अन्य साधन देना, उक्त कार्य के लिए अध्यापक नियत करना, विद्यादान के स्थान बनवाना और छात्रवृत्ति देना आदि ज्ञानदान है। गृहस्थ के धन-जन की सुरक्षा करना, विपत्ति में साथ देना, उत्पीड़न होने पर मदद देना, उनके धर्म साधनों पर बाधा उपस्थित हो जाय, आतताइयों द्वारा आजीविका छीनी जाय, धार्मिक व सामाजिक सुविधाओं पर कुठाराघात हो, विपत्ति आ जाय, चोर व डाकुओं का उपद्रव बढ़ जाय, अग्निदाह आदि आकस्मिक आपत्तियाँ आ जायँ तो इन सबको यथाशक्ति तन, मन व धन से दूर करने का प्रयत्न करना अभयदान है। इन सब चारों दानों को देते समय यह भावना रहती है कि धर्मात्मा पुरुष अपना धर्मसाधन करें और मैं उनके धर्मसाधन के लिए जो भी सेवा कर सकूँ उसका करना मेरा कर्तव्य है। जो दान उक्त उद्देश्य से नहीं किया गया, मात्र करुणा से दुःखी प्राणियों के लिए किया जाय वह करुणादान है। समकक्ष के श्रावकों में पारस्परिक सहानुभूति तथा प्रेम बढ़ाने के हेतु भोजन कराना, विवाहादि अवसरों पर व्यवहार के रुप में रुपया, जेवर वस्त्रादि देना, मरणादि के दुःख में व्यवहार का निर्वाह कर उनके कुटुम्बियों की सहायता करना यह सहयोग पद्धति पर देना समवृत्ति दान है। अपने कुटुम्ब वर्ग को जिनका यद्यपि हमारे मरणोत्तर काल में हमारी संपत्ति पर स्वयं अधिकार प्राप्त होगा तथापि हम अपने जीवन काल में ही यदि संपत्ति से मोह त्याग कर उन्हें दें तो वह अन्वयदत्ति नामक दान है। ___ कुछ लोग ऐसी शंका करते हैं जो अन्वयदत्ति कोई दान नहीं है, वह तो कुटुम्बियों का अधिकार प्राप्त द्रव्य है। दाता न भी दे तो अधिकारी कुटुम्बी स्वयं ले ही लेता। अतः इसे दान में परिगणित नहीं करना चाहिए। यह प्रश्न उचित है। इसका समाधान यह है कि अन्वयदत्ति की गणना श्रेष्ठ दानों में है, पर वह पात्र की दृष्टि से नहीं। जैसे शास्त्रदान, पात्रदान और करुणादान में पात्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy