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________________ २४२ श्रावकधर्मप्रदीप प्रोषधोपवास व्रती विषयों की इच्छा और कषायभाव से रहित होने के कारण जो भी कार्य करता है उसमें यह विचार अवश्य रखता है कि मेरे किसी भी कार्य के द्वारा किसी भी जीव को बाधा उत्पन्न न हो। __ यदि वह ऐसा विचार न रखे, और बिना देखे तथा बिना शोधे ही चले, जीव रक्षा का विचार किए बिना ही वस्तुओं को उठाये या रखे, अशोधित स्थान व आसन पर बैठे या शयन करे, शास्त्र स्वाध्याय सामायिक आदि तथा जिन पूजनादि कार्यों में भी यद्वा तद्वा प्रवृत्ति करे, जहाँ कहीं भी जिस किसी भी प्रकार मल-मूत्र आदि शारीरिक-मलों को त्याग करे, आदर व ग्राह्येच्छा रहित आलस्य पूर्वक लापरवाही से कर्तव्याकर्त्तव्य का बिना विचार किए यदि कार्य करे व्यवहार करे तो उस व्रती का व्रत सदोष अर्थात् सातिचार है। स्व-पर रक्षा व्रत का लाभ है। सदोष व्रती उक्त लाभ से वंचित रहता है। परघात की अभिलाषा न रहते हुए भी, उनके प्रति क्रोधादि कषायों का भाव न रहते हुए भी अपने प्रमाद मात्र या असावधानी से परघात हो जाता है। इस असावधानी का कारण है चित्तवृत्ति की अनेकाग्रता। चित्त यदि अनेक विचारों में अनेक चिन्तनों में मग्न रहता है तब व्रत पालन में या तत्संबंधी कार्यों के करने में स्वयं ही गलती हो जाती है। अतः व्रती को व्रत के प्रति आदर भाव रखकर चित्त की सावधानी रखनी चाहिए। यदि सावधानी रहे तो उक्त दोष उत्पन्न नहीं हो सकते। स्वपरिणामों की अस्थिरता ही बंध का कारण है। परिणामों की स्थिरता के हेतु ही व्रत उपवासादि हैं। तब ही वे संवर (कर्मो का न आ सकना) के लिए कारण होते हैं। संवर होने से स्वात्मरक्षा ही होती है। इस प्रकार से पररक्षा की सावधानी में हमारी वास्तविक रक्षा है। संसारी प्राणी सदा ही कर्म के आगमन, बंध, उदय और उदीरणा से त्रस्त है। इस सनातनी प्रक्रिया को जब तक बन्द न किया जाय तब तक यह प्राणी सुखी नहीं बन सकता। व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहविजय और चारित्र ये संवर के हेतु आचार्यों ने बताए हैं। इससे यह प्रमाणित है कि निर्दोष व्रत का यदि पालन किया जाय तो यह आत्मा नवीन कर्म बंधनों से नहीं बंधता। इस विचार से भी उक्त सम्पूर्ण दोषों को टालकर व्रत के समय साम्यभाव पूर्वक रहकर उसका सुन्दरता से विधिवत् निर्वाह करे जिससे स्व-परकल्याण हो। १९७।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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