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________________ नैष्ठिकाचार कर्मणामास्रवः स्यात् । सामायिके एष एव प्रयत्नः यत्पञ्चेन्द्रियविषयेषु क्रोधादिकषायेषु च योगत्रयाणाम्प्रवृत्तिर्न स्यात् । तत्प्रवृत्तौ तु दुष्कर्मणामास्रवणात् संसारपरिभ्रमणे चतुर्गतिसंसरणे वृद्धिर्भवति इति मनसा जिनगुणानेव चिन्तयेत् वचसा तानेवोच्चारयेत् कायेन जिनवन्दनादिकमेव कुर्यात् । तस्माच्चलनमेवातिचाराः सामायिके दोषप्रदाः। अनादरेण सामायिककरणं तत्क्रियाविस्मृतिश्च अतिचारौ। इत्येव पञ्चातिचारान् परित्यज्य सामायिकं कुर्यात् येनात्मा स्वात्मदेशं व्रजेत् ।। १९४ ।। मन की चञ्चलता, वचनव्यापार और शारीरिक क्रिया इन तीनों योगों का सञ्चलन संसारी प्राणी के अपनी-अपनी योग्यतानुसार सदा होता रहता है। सामायिक व्रत में इन तीनों योगों को सांसारिक विषयों से और उनकी प्राप्ति या अप्राप्ति में होनेवाली कषायों से बचाकर साम्यभाव की प्राप्ति के लिए लगाने का प्रयत्न किया जाता है। यदि सामायिक व्रती अपने योगों को इस प्रयत्न से हटाकर विषय कषायों में प्रमादवश चलाता है तो उसके व्रत के लिए ये तीनों दोषरूप हैं। २३७ तीनों ही योगों की चञ्चलता से यह जीव कर्मों के द्वारा बँधता है, क्योंकि जीव कर्मों का प्रवेश इन्हीं के द्वारा होता है, कषायभाव इनका दृढ़ बंधन आत्मा के साथ कर देते हैं । यदि योगों की चञ्चलता मिट जाय तो कर्मों का प्रवेश ही आत्मा में नहीं हो सकता और आस्रव के अभाव में संसार-चक्र का परिभ्रमण भी मिट जाय । यदि योग की प्रवृत्ति साम्यभाव से च्युत हो जाय तो भी उसे जिनगुण चिन्तवन में, जिनेन्द्र के नामोच्चारण में और जिनवन्दनादि कार्यों में ही लगाना चाहिए न कि विषयकषायादि के चिन्तवन आदि में। इन तीन अतिचारों के सिवाय सामायिक का चौथा अतिचार है सामायिक के कार्य में आदरभाव न होना । अनादर होने पर सामायिक की क्रियाओं का विस्मृत हो जाना अस्वाभाविक नहीं है। अतः सामायिक की क्रियाओं का भूल जाना यह पाँचवाँ अतिचार है। इस प्रकार सामायिक व्रत के पाँच अतिचारों का निरूपण किया। सदोष आचरण ही अतिचार है। जिस व्रत को स्वीकार किया यदि उसके पालन करने में व्यक्ति उद्देश्य को भूल जाता है तो वह व्रत सदोष बन जाता है। उसके पास व्रत की खोल रह जाती है और उसका सारभाग नष्ट हो जाता है। सामायिक व्रती भी सामायिक को इसलिए स्वीकार किए है कि इसके द्वारा मैं उस परम साम्यावस्था को प्राप्त हो जाऊँ जो कि अन्तिम ध्येय है। यदि वह सामायिक सम्बन्धी समस्त बाह्य क्रियाओं का आलंबन कर संतुष्ट हो जाय, अपने मूलोद्देश्य को भूल जाय तो मन, वचन, काय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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