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श्रावकधर्मप्रदीप
ठगता है और व्यर्थ पाप का बन्धन करता है। अतः व्रती का कर्तव्य है कि मूल भावना की ओर सदा ध्यान रखकर व्रत का पालन करना चाहिए तब ही वह निर्दोष होता है, अन्यथा व्रत की आत्मा (असली रूप ) नष्ट होकर निर्जीव (मृत) व्रत रह जाता है जिसका कुछ अर्थ नहीं होता। वह अनर्थ का ही हेतु हो जाता है । १७२ ।
स्वदारसन्तोषव्रत का स्वरूप (उपजाति:)
विहाय यश्चान्यकलत्रमात्रं सुपुत्रहेतोः स्वकलत्र एव करोति रात्रौ समयेन सङ्गं ब्रह्मव्रतं तस्य किलैकदेशम् ।।१७३ ।।
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विहायेत्यादिः— मोहनीयस्योदयात् किल परसमागमेच्छोत्पद्यते । तथापि यो बुद्धिमान, योग्यसन्तानवृद्ध्यर्थं सधर्मिणः कन्यायाः धर्मसाक्षिकं पाणिग्रहणं करोति तत्रैव सन्तोषवृत्तिमाचरति स्वप्नेऽपि न परस्त्रीरभिवांछति स किल स्वदारसन्तोषव्रती । तस्य किल ब्रह्मचर्यव्रतस्यैकदेशः स्यादेव । अतः यः श्रावकोऽन्यकलत्रमात्रं विहाय स्वकलत्र एव सुपुत्रहेतोः रात्रौ समयेन योग्यवेलायां सङ्गं करोति तस्यैकदेशं ब्रह्मव्रतं भवति ।। १७३ ।।
स्त्री के लिए पुरुष समागम की इच्छा और पुरुष के लिए स्त्री समागम की इच्छा अथवा स्वात्मभिन्न किसी भी पर पदार्थ के ग्रहण करने की इच्छा मात्र मोहनीय कर्म के उदय का दुष्परिणाम है। जो पुरुष विवेकी हैं वे कर्माधीन उक्त वृत्ति को स्वीकार करके भी उसमें श्रेष्ठ मार्ग का अवलम्बन करते हैं। वे अपनी कुलपरम्परा को चलाने के हेतु सधर्मा योग्य कन्या का धर्मसाक्षी से पाणिग्रह करते हैं और पञ्च देव और अग्नि की साक्षी से प्रतिज्ञापूर्वक ग्रहीत स्वकलत्र में ही श्रेष्ठ सन्तान को जन्म देते हैं। स्वप्न में भी परस्त्रियों के प्रति गमन नहीं करते हैं। ऐसे सन्तोषी व्यक्ति ही स्वदारसन्तोषव्रती हैं। इसी प्रकार जो कन्याएँ अपने माता पिता आदि की अनुमति पूर्वक पञ्च देव तथा अग्नि की साक्षी से योग्य कुलीन वर का पाणिग्रहण कर उसे अपना पति स्वीकार करती हैं तथा अन्य पुरुषों की ओर स्वप्न में भी विकार भाव नहीं लाती वे शीलशिरोमणि उत्तम गृहिणी हैं।
जिनमें उक्त प्रकार से एकदेश ब्रह्मचर्यव्रत है वे शीलवान् स्त्री पुरुष ही उत्तम पात्र दिगम्बर जैन साधुओं के लिए दान देने के विशेष अधिकारी हैं जो दान कल्याण परम्परा का हेतु है।
कामवासना ही एकमात्र संसार की जड़ है। सम्पूर्ण पापों का मूल स्रोत यहाँ से ही प्रारम्भ होता है। कामवासना के कारण ही मनुष्य स्त्री परिग्रह को स्वीकार करता है।
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