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________________ श्रावकधर्मप्रदीप आप देंगे तो मैं आपको १००) पारितोषिक दूँगा । ब्राह्मण यह समझ कर कि यदि मेरा कथन मिथ्या निकल गया तो १००) का नुकसान होगा, बोला हम लिखकर रख देते हैं, यथा समय आप इसे देखकर निर्णय कर मेरा पारितोषिक दे देना । प्रश्नकर्ता ने स्वीकार कर लिया। उसने लिखा “पुत्र होगा न पुत्री होगी।” ब्राह्मण का यह लेख कपटपूर्ण था। उसने इस शब्दावली का जानबूझकर प्रयोग किया यह समझ कर कि चाहे पुत्र हो या पुत्री हो या नपुसंक, इस वाक्य से तीनों अर्थ समय पर निकाले जा सकते है। अर्थात् यदि पुत्र हुआ तो पढ़ दूँगा - पुत्र होगा, न पुत्री होगी। यदि पुत्री हुई तो कहूँगा पुत्र होगा न, पुत्री होगी। यदि दैवात् नपुंसक ही हुआ तो सीधा अर्थ है कि न पुत्र होगा न पुत्री अर्थात् नपुंसक होगा। प्रत्येक प्रकार के अर्थ में पारितोषिक मैं ही पाऊँगा । जैसे यह एक उदाहरण है ऐसे स्वार्थ साधक अन्य प्रकार के कपटपूर्ण स्वार्थ साधक द्व्यर्थक लेख कूटलेख हैं। यद्यपि यह प्रयोग विश्वासघात कारक होने से अनाचार रूप भी कहा जा सकता है तथापि प्रयोगकर्ता इस प्रयोग को करते हुए भयभीत है कि मैं झूठा न समझा जाऊँ, मेरा व्रत भंग न हो, इसलिए स्पष्ट मिथ्या प्रवाद न करके गूढ़ शब्दावली का उपयोग करता है। इतनी व्रतचिन्तकता के कारण उसका सुधार संभव है अतः यह अतिचार में गिना है। २१२ इसी प्रकार सत्याणुव्रत का ' मन्त्रभेद' चतुर्थ अतिचार है। किसी व्यक्ति की गुप्तवार्ता को, जिसे वह अन्य को नहीं बताना चाहता, बताने में अपनी हानि देखता है। उससे ज्ञातकर उसे हानि पहुँचाने के लिए अन्यत्र फैला देना चतुर्थ अतिचार है। उदाहरण जैसे यदि किसी व्यक्ति ने यह विचार किया कि अमुक स्थान पर एक लाभ का सौदा है पर अन्य व्यापारी जान लेंगे तो वह लाभ मुझे न हो सकेगा। इस अभिप्राय को रखकर प्रसंग से आप से वार्तालाप करते-करते उस बात को कह गया। साथ ही आप से यह भी प्रार्थना करली कि इसे गुप्त रखें। यदि आप उस वार्ता को गुप्त न रखकर किसी अन्य सम्बन्धित व्यापारियों को वह जाहिर कर पूर्वोक्त व्यक्ति को हानि पहुँचाने का प्रयत्न करते हैं तो आपका वह वचन प्रयोग सत्य होते हुए भी सत्य का दोष है। उसकी गणना अतिचार में होगी। यदि किसी चोर या डाकू का अभिप्राय किसी को लूट लेने का हो, किसी की इज्जत खराब करने का हो, व्यभिचार का हो, स्वयं फाँसी लगाने का हो, प्रकारान्तर से मरण का हो तब उसकी चेष्टा से अभिप्राय जानकर सम्बन्धित व्यक्ति को सचेत कर देना सत्य का अतिचार नहीं है, क्योंकि यह कार्य दूसरे को हानि से बचाने का है न कि नुकसान पहुँचाने का । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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