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नैष्ठिकाचार
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पातक की विधिका यथायोग्य पालन करना ही श्रेयस्कर है। जन्म सम्बन्धी अशौच को सूतक तथा मरण सम्बन्धी अशौच को पातक कहते हैं। लोक में दोनों को सूतक शब्द से व्यवहार करते हैं अतः यहाँ दोनों को सूतक शब्द लिखा गया है। १५५।१५६।
प्रश्न:- श्रीदं न गृह्णाति यथार्थधर्मं स कीद्दशो मे वद विश्वशान्त्यै।
हे गुरो! कल्याणकारक धर्म को जो नहीं धारण करता वह मनुष्य कैसा है? विश्वशान्ति के लिए उसका स्वरूप बताइये
__ (अनुष्टुप्) करोति केवलं कौ यो धर्मं रूढ़िवशात्सदा । न जानाति गुणान् दोषान् धर्मस्यापि स्वबुद्धितः ।।१५७।। नेत्रवानपि चान्धः स बुधोऽपि मूर्ख एव सः । स कलहप्रियो मन्ये स्वर्मोक्षसौख्यदूरगः ।।१५८।।युग्मम् ।।
करोतीत्यादिः- यः मूर्खः धर्मस्य स्वरूपं न जानाति अथवाजानन्नपि तस्य विश्वकल्याणकारकस्य धर्मस्य स्वबुद्धितः श्रद्धानं न करोति। अधर्मस्य दोषानपि यो न वेत्ति। तथा च केवलं वंशपरम्परागतत्वात् लौकिकरूढ़िवशादेव धर्मं पालयति न वेत्ति तत्स्वरूपं स कलहप्रियः स्वर्गसुखतस्तथा मोक्षसुखतोऽपि अत्यन्तं दूरे एव इति अहं मन्ये। १५७/१५८। ।
धर्म और अधर्म के स्वरूप को और उसके गुण दोषों को विचार कर जो अधर्म का त्याग कर धर्म का पालन करता है वह मनुष्य बुद्धिमान् है। किन्तु जो धर्माधर्म के स्वरूप को नहीं जानता अथवा जानकर भी स्वयं की बुद्धि से विवेक को प्राप्त न होकर केवल रूढ़ि के वश यह समझकर धर्म का पालन करता है कि यह तो मेरा वंश परम्परागत धर्म है अतः पालना चाहिए, वह मनुष्य धर्मात्मा नहीं है। वह केवल पर्यायबुद्धिवाला है। जैसे वह जैन कुल में उत्पन्न होने से जैन धर्म को कुलधर्म मानता है इसी प्रकार विधर्मियों के कुल में उत्पन्न होने पर वह उसे भी कुलधर्म मानकर पालन करता है। जिस पर्याय में जीव जाता है उसे ही अपनी करके मान लेता है, इसमें विवेक का कार्य कहाँ है। जो विवेक से जैनधर्म को आत्मधर्म मानकर पालन करेगा उसका ही कल्याण होगा।
जो धर्म के स्वरूप को जानकर भी उसे लौकिक रूढ़ि मात्र से पालता है, आचार्य कहते हैं वह नेत्रवान् होते हुए भी अंधे के ही समान है। वह केवल कलहप्रिय है, धर्मप्रिय नहीं। वह धर्म के सुन्दर फल स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति के मार्ग से बहुत दूर है ऐसा हम मानते हैं। अतः विवेकी मनुष्य का कर्तव्य है कि वह जो कुछ भी कार्य करे उसे विवेक
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