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________________ १९० श्रावकधर्मप्रदीप प्रारंभ करना आरंभ है। ये संरंभादि तीनों कार्य मनमात्र से भी होते हैं, वचनमात्र से भी होते हैं और काय से भी होते हैं अतः तीनों भंगों के साथ संरंभादि का संयोग होने से नव भंग बनते हैं। ये नव भंगवाले कार्य क्रोध के वश से हों तो क्रोध के नव भंग हुए और ये ही नव भंग वाले कार्य मान कषाय के वश होकर किए जायँ तो वैसे ही नव भंग मानकषाय के हुए। माया और लोभ कषाय के आवेश में भी ये नव हो सकते हैं, अतः माया के भी नव और लोभ के भी नव भंग हुए। सब मिलकर ९४४=३६ भंग पाप कार्य के हुए। ___ किसी भी कार्य को स्वयं करना कृत कहलाता है। दूसरो से कराना कारित कहलाता है और प्रेरणा के बिना भी यदि कोई स्वेच्छा से उक्त कार्य करे और दूसरा केवल उसका समर्थन करे तो वह अनुमोदना कहलाती है। वे ३६ भंगवाले पाप कृत से भी होते हैं, कारित से भी होते हैं और अनुमोदना से भी होते हैं अतएव उनको एकत्रित करने पर ३६+३६+३६=१०८ एक सौ आठ भंग कार्य के हुए। इन एकसौ आठ भंगों के द्वारा पंचेन्द्रियों के विषय पोषणार्थ हिंसादि पाँच पाप गृहस्थ द्वारा हो जाते हैं। कुछ ज्ञातभाव से होते हैं और कुछ अज्ञात आदि भाव से होते हैं। उन सब पापों से बचने के लिए अथवा उनका नाश करने के लिए ही १०८ बार पञ्चपरमेष्ठी भगवान् का नामस्मरण उतनी मणिवाली माला से किया जाता है। जप माला में १०८ मणियाँ इसीलिए रखी जाती हैं। माला के प्रारम्भ में या अन्त में दोनों ओर के धागों में पिरोये गए तीन दाने, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र स्वरूप रत्नत्रय के स्मरणार्थ हैं। इनसे कम मणिवाली माला जप के योग्य नहीं मानी गई है। यदि माला में पूर्ण १०८ मणियाँ न हों तो सुमेरु के ३ दानों के सिवाय १०८ के आधे ५४ या चतुर्थांश २७ मणि की भी माला उपयोग में लाई जा सकती है, पर उसे दो बार या चार बार फेरकर १०८ की संख्या पूरी कर दी जानी चाहिए। स्वात्मबोध को प्राप्त करने के लिए स्वात्मबोध प्राप्त करने वाले भगवान् का नामस्मरण ही एकमात्र हेतु है, अतः माला जपने का प्रयोजन अपने पापों का नाश करना है। माला जपते समय श्रावक को विचार करना चाहिए कि मैंने क्या-क्या पाप आज किए हैं। उनकी आलोचना करे। अपने पापों पर पश्चात्ताप करे। अपनी कमजोरी पर दुखी हो। पापों से छूटने के लिए निष्पाप रूप भगवान् का नामस्मरण कर विचार करे जो मैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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