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________________ XII से बतलाया है। अहिंसा ही परम धर्म है, वीतराग देव ही सच्चे देव हैं, निर्ग्रन्थ साधु ही सच्चा साधु है और जिनोक्त शास्त्र ही पठनीय है, ऐसा जिसका भाव है वह पाक्षिक श्रावक है। पाक्षिक श्रावक भोगोपभोग में विरक्त नहीं होता और त्रस स्थावर जीवों की हिंसा का त्यागी नहीं होता है तथापि धर्मकार्य करने में सदा तत्पर रहता है। वह दान देता है, पूजा करता है और यज्ञोपवीत धारण करता है। विद्वानों का मत है कि ग्रन्थकार अपने समय का प्रतिनिधि होता है। उसकी रचना तत्कालीन विचारों से अछूती नहीं रहती । श्रावकधर्मप्रदीप में भी हम इस तथ्य के दर्शन पाते हैं। यह सब जानते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध के काल से विश्व में सुख शान्ति स्थापित करने की सर्वत्र चर्चा है। आचार्य कुन्थुसागर जी ने भी श्लोक ११ में उसकी चर्चा करते हुए लिखा है कि दुष्ट का निग्रह और सज्जन का रक्षण सम्पूर्ण विश्व में सुख शान्ति का कारण है ऐसा भाव पाक्षिक का होता है। दूसरे अध्याय से नैष्ठिक श्रावक का वर्णन है। प्रथम तीन अध्यायों के द्वारा पहली प्रतिमा का वर्णन खूब विस्तार से किया है और अन्य श्रावकाचारों में दार्शनिक श्रावक के सम्बन्ध में जो कहा है उस सब का संकलन कर दिया है, साथ ही कुछ नवीन बातें भी हैं, जो अन्य श्रावकाचारों में नहीं है। उदाहरण के लिये सूतक की चर्चा किसी भी श्रावकाचार में नहीं पाई जाती, किन्तु इस श्रावकाचार में उसे भी समाविष्ट कर दिया गया है। आगे के अध्यायों में शेष प्रतिमाओं का वर्णन है। आचार्य श्री कुन्थुसागर जी इस ग्रन्थ के कर्ता आचार्य श्री कुन्थुसागर जी इस युग के आदर्श साधु थे। उनकी सौम्य मूर्ति सद्व्यवहार, भाषा संयम, एक साधु के अनुरूप थे। जो कोई उनके परिचय में आता था वह प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था । त्यागवृत्ति अपनाने से पूर्व उनका ज्ञान उतना विकसित नहीं था, किन्तु त्यागी होने पर उन्होंने बराबर ज्ञानाराधना में अपना उपयोग लगाया। जब वह सप्तम प्रतिमा में थे तो एकबार अध्ययन के लिये श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, बनारस में भी आये थे, किन्तु वहाँ का जलवायु अनुकूल न होने से उन्हें चले जाना पड़ा था। मुनिदीक्षा लेने के पश्चात् जब मुझे प्रथम बार उनके दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो मैं तो उन्हें नहीं पहचान सका, किन्तु उन्होंने मुझे तुरन्त पहचान लिया। आपका जन्म स्थान कर्नाटक प्रान्त के बेलगाँव जिले में स्थित ऐनापुर ग्राम था। आपका जन्म नाम रामचन्द्र था । पच्चीस वर्ष तक गृहस्थाश्रम में रहने के पश्चात् सन् १९२५ में आपने श्रवणवेलगोला में आचार्य श्री शान्तिसागर से क्षुल्लक दीक्षा ली और आपका नाम पार्श्वकीर्ति रखा गया। तत्पश्चात् सोनागिर सिद्धक्षेत्र पर आचार्य महाराज से ही दिगम्बर जिनदीक्षा ले ली। उसके पश्चात् आप अध्ययन में लगे रहे और उसके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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