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________________ १३६ श्रावकधर्मप्रदीप न हो वह सत्य है। जो वचन सुननेवालों में वैर या कलह को पैदा न करे वह सत्य है। जिस वचन से श्रोताओं के हृदय को खेद न हो वह सत्य है। जिस वचन से श्रोता भ्रम में न पड़ जाय वह सत्य है। जो वचन निरर्थक अति प्रलाप से रहित परिमित शब्दों में हो वह सत्य है। जो वचन किसी को पाप में प्रवृत्त न कराकर धर्म मार्ग में लगावे वह सत्य है। जो वचन आगम परम्परा के अनुकूल हो वह सत्य है। जो वचन हिंसाकारक या हिंसोत्पादक न हो वह सत्य है। जो वचन किसी को मिथ्यामार्ग या कुमार्ग में न ले जाय वह सत्य है। जो वचन श्रोता को सद्धर्म में स्थापित करे वह सत्य है। उक्त प्रकार से सत्य के अनेक रूप बताए गए हैं। इतना होने पर भी जिस वचन से किसी को विपत्ति आ जाय, अकल्याणकारक हो, भ्रांतिदायक हो और कलह उत्पन्न करा दे तो वह ज्यों का त्यों होकर भी सत्यवचन न होकर अप्रशस्त और निन्द्यवचन है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है। अतः सत्यासत्य का स्वरूप जानकर असत् वचन का प्रयोग नहीं करना चाहिए।९८। प्रश्न:-अचौर्यव्रतचिह्नं किं वर्तते मे गुरो वद। हे गुरो! अचौर्य व्रत क्या है? कृपया उसका स्वरूप कहिए (इन्द्रवज्रा) त्यक्तं वने वा पतितं श्मशाने को स्थापितं स्वात्मन एव बाहम् । ग्राह्यं ह्यदत्तं भवदं न वस्त्वचौर्यव्रतं तत्सुखदं सदा स्यात् ।।९९।। त्यक्तमित्यादिः- परद्रव्यपरिग्रह एव चौर्यमिति चौर्यस्य सुनिश्चितं लक्षणमस्ति। ये साधवस्तु एतल्लक्षणानुसारेण गृहादिकं परिवारवर्ग धनादिकं च परित्यज्य निर्वस्त्रं निःसंगमेव देहस्नेहरहितं वने वसन्तः स्वात्मनो निधिं परिशीलयन्ति ते खलु परिपूर्णरूपेणैव अचौर्यव्रतपालकास्सन्ति। ये तु श्रावकास्तथाकर्तुमशक्तास्ते गृहवासनिरता अपि लौकिकव्यवहारदृष्ट्या यद्रव्यम् अपरस्य कस्याप्यधिकारे वर्तते न तद् गृहन्ति। तत्कस्यापि द्रव्यम् स्वल्पमूल्यं महाघु वा स्यात् अदत्तं न कदापि गृहन्ति। यःकौ पृथिव्यां वने श्मशाने वा पतितं केनचित् स्थापितं वा स्वात्मनो बाह्यं आत्मसम्बन्धगन्धशून्यं वस्तु धनादिकं सुवर्णादिकं वस्त्रादिकं वा द्रव्यं न हरति न च अदत्तं परेभ्यः ददाति सोऽचौर्याणुव्रती भवति। यत्किल प्रत्यक्षरूपेण चौर्यं नास्ति तदपि परद्रव्यापहरणलक्षणाक्रान्तत्वाच्चौर्यमेव। यथा-अकृत्रिमेषु वस्तुषु कृत्रिमवस्तुमिश्रणात् तथा अकृत्रिमाणि चैतानि इति ज्ञापयित्वा तेषाम्महार्पण अकृत्रिमवस्तुनस्समानमूल्येन विक्रयणं, क्रयार्थं मानोन्मानप्रमाणमधिकं विक्रयार्थञ्च हीनप्रमाणम्मानोन्मानादिकं च चौर्यमेव। राज्याधिकारिणां दृष्टिवञ्चनेन क्रयकरादीनां चौर्यमपि चौर्यमेव। आयकरादीनां राज्यकराणां लोपनं अथवा करद्रव्यस्याप्रदानभावेन मिथ्याभाषणं सदपि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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