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________________ नैष्ठिकाचार की जैसे कर्मों के करने में प्रवृत्ति थी उनका वैसे ही क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों में विभाग किया था। जिन लोगों ने इन षट् कर्मों को छोड़कर पापोपहत वृत्तियाँ स्वीकार कर लीं। जैसे मछली मारना, पशु-पक्षियों का घात कर मांस बेचना, मांस खाना, मद्य बनाना, मद्य बेचना और उसका पान करना आदि के विषय में भगवान् मौन रहे और उनको शूद्रों की सबसे निम्न श्रेणी में सम्मिलित किया और इनका ‘अकारु' नाम रखा। इनको किसी भी धार्मिक या सामाजिक व्यवहार के योग्य उन्होंने नहीं माना। इन सबका उल्लेख श्री आदिपुराण में हैं। सारांश यह निकला कि प्रत्यक्ष हिंसा स्वरूप कार्यों से या असदाचार के कार्यों से आजीविका करना अत्यन्त निन्द्य है । वह ऐसे उद्योग में या आरम्भ में सम्मिलित नहीं है जिसे श्रावक स्वीकार कर सके। जिन कार्यों में वह अपने प्रिय धर्म 'जीवदया' का पालन कर सकता है, उन कार्यों को ही आजीविका के लिए स्वीकार करता है और उनमें जो हिंसा बचाव करते हुए भी हो जाती है उसे वह त्याग नहीं सकता किन्तु इसके लिए वह दु:खी होता है और उसका प्रतिक्रमण द्वारा पाप विशोधन करता है । ३ - तीसरी हिंसा - विरोधी हिंसा है। यह हिंसा भी गृहस्थ द्वारा अपरिहार्य है। पूर्वोक्त दोनों हिंसाओं की तरह इसे भी गृहस्थ त्यागने में असमर्थ है। जिस तरह उद्योग और आरम्भ में जीवदया का ध्यान रखते हुए भी हिंसा हो जाती है, ऐसे ही धर्म पालन के कार्य में गृहस्थी के परिपालन में, बाल बच्चों के संरक्षण में और गार्हस्थिक कार्यों के लिए सञ्चित द्रव्यों के रक्षण में हिसा हो जाती है, क्योंकि किसी को भी सताने या कष्ट देने की इच्छा न रखते हुए भी क्वचित् कोई दुष्ट विध्न उपस्थित कर देवे तो उससे बचना और विघ्न को दूर करना उसका कर्तव्य है। ऐसा करते हुए सम्भव है विरोधी को पीड़ा हो जाय, उसका अंगभंग हो जाय या बाधा उपस्थित हो जाय तो गृहस्थ इसके लिए भी लाचार है। ऐसी हिंसा विरोधी हिंसा है। विरोधीहिंसा यद्यपि बहुत बड़ी हिंसा है तथापि वह गृहस्थ के लिए अपरिहार्य है। सर्व साधारण प्रजाजन यद्यपि अपने ऊपर आनेवाली विपत्ति को दूर करने के लिए राज्याश्रय ग्रहण करता है और न्यायालय में उस अपराधी के लिए कारागृह में बन्द कराने या अन्य प्रकार का दण्ड दिलाने का प्रयत्न करता है तभी उक्त प्रकार से वह निर्विध्न होकर अपना धर्म पालन कर सकता है। ऐसा होने पर भी जो सर्व साधारण प्रजाजनों के संरक्षक हैं, राजा हैं, या राज्याधिकारी हैं और सैनिक हैं, उनका कर्तव्य है कि वे प्रजा का संरक्षण करें। शिष्ट अर्थात् सज्जन की सहायता और दुष्ट अर्थात् दुर्जन को दण्ड इन दोनों कार्यों के बिना कभी राज्य सञ्चालन नहीं हो सकता। राजा का यही एक प्रधान Jain Education International १३१ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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