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________________ नैष्ठिकाचार ११३ जाते हैं। तब निर्धनता के कारण चोरी की आदत उन्हें डालनी पड़ती है, क्योंकि इस प्रकार धनहीन, आजीविकाहीन और विश्वासहीन हुआ मनुष्य या तो भिक्षावृत्ति करने के लिए या चोरी करने के लिए मजबूर होता है। इसके सिवा उसके पास दूसरा कोई उपाय ही नहीं है। इस प्रकार जुए की निर्धनता ने चोरी व्यसन का उपहार उसे प्रदान किया या निर्लज्जता प्रदान कर भिक्षा मँगवाई। राजा नल ने चिड़ियों का शिकार कर पेट भरना प्रारम्भ किया अर्थात् उसे जुए की निर्धनता के फल स्वरूप आखेटक व्यसन लग गया। दैवगत्या यदि कोई द्यूतक्रीड़ावाला अपनी पूँजी बचा ले और दूसरे की पूँजी भी जीत जाय। ५००) की जगह १५००) पैदा करले तो यह जीता हुआ द्रव्य उसे शान्ति से बैठने न देगा। या तो वह १५००) के ३०००) बनाने की फिकर में रहेगा और फिर भी जुआ खेलेगा और यदि खेलना कुछ समय को बन्द कर दिया तो बिना प्रयास के प्राप्त उस पर द्रव्य से अन्य व्यसनों का शिकार बन जायगा। मद्यपान, वेश्यागृहनिवास, उसकी संगति में मांस सेवन, वेश्या न मिलनेपर परस्त्रीरमण आदि समस्त व्यसन स्वतः एव उसे घेर लेंगे और इन व्यसनों में द्रव्य को नष्ट कर वह भी निर्धनता को प्राप्त होकर चोरी, भिक्षा और आखेटक से जीविका निर्वाह के लिए बाध्य होगा। इस प्रकार व्यसनों का लग जाना और उनसे हर प्रकार की हानि उठाना एक चूत का फल है। इसे सातों ही व्यसनों का राजा कहा है। एक दन्तकथा प्रसिद्ध है कि एक साधु जंगल में चिड़ियाँ मार रहा था। उसे देखकर एक अन्य साधु ने उसे रोका और कहा कि भाई साधु होकर शिकार करते हो? साधु बोला कि सदा नहीं पर कभी-कभी मांस खाने की आदत पड़ गई है। जब इसके बिना रहा नहीं जाता तब शिकार कर लेता हूँ। दूसरे साधु को आश्चर्य हुआ। उसने पूछा कि क्या भाई मांस भी खाते हो? तो बोला हाँ, वेश्या की संगति में यह आदत पड़ी है। दूसरे साधु ने सोचा कि यह वेश्या भी सेवन करता है। उसने पूछा कि भाई तुम वेश्या के यहाँ भी जाते हो और तुमने उसकी संगति में साधुपना छोड़ मांस खाना कैसे स्वीकार कर लिया। तब पहला साधु बोला कि भाई अपनी दशा क्या कहें? वेश्या ने मद्य पिलाया। वह बोली बिना इसे पिए भोग का आनन्द नहीं आता। सो मद्य पीकर जब मुझमें उन्मत्तता आई, भूख लगी और चित्त चैतन्य शून्य सा होने लगा तब जो उसने खिलाया सो खाया। होश आने पर ज्ञात हुआ जो इसने मांस खिलाया है तब से आदत पड़ गई है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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