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________________ नैष्ठिकाचार विशेषार्थ - मोक्षमार्गी युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन आदि पाँचों महापुरुष अपनी गार्हस्थिक अवस्था में इसी एक द्यूत के कारण राज्य रहित हुए वन-वन मारे-मारे फिरे । राजा होकर भी पराई चाकरी करनी पड़ी। द्रौपदी जैसी पतिव्रता स्त्री को जुए के दाव पर लगा बैठे। बुद्धि का दिवाला निकल गया। भरी सभा में अपनी वधू द्रौपदी का अपमान सहा। वह भी ऐसा अपमान जिसे एक नीच से नीच व पापी से पापी भी सहने में लज्जित होगा। स्त्री के सर्वस्व सतीत्व के साथ जुए में जीतनेवाले नीचों ने खिलवाड़ किया। उसे सभा में नग्न करना चाहा किन्तु उसके सतीत्व के प्रभाव से देवों ने उसकी लज्जा रखी । पर जीतने और हारनेवाले दोनों जुआड़ियों ने अपनी निर्लज्जता की पराकाष्ठा इस घटना में दिखा दी। यह कथा पाण्डव पुराण में प्रसिद्ध है। कथाओं में राजा नल का दूसरा पौराणिक उदाहरण है। जिन्होंने जुए में राजपाट सब हार दिया और पत्नी सहित वन-वन फिरे, चिड़ियों को मारकर पेट भरा तथा अनेक पाप किए। अपनी धोती जो एक मात्र लज्जा का शेष साधन थी वह चिड़ियों को फँसाने के लिए फेंक दी। पर चिड़िया धोती लेकर उड़ गई और राजा नंगा रह गया। तब अपनी स्त्री की आधी साड़ी पहनकर लज्जा ढाँकी । इतना होने पर भी वह कायर अपनी पत्नी को जंगल में छोड़कर वन-वन मारा मारा फिरा । ऐसी दुर्दशा बड़े-बड़े राजाओं की हुई तो साधारण मनुष्यों की क्या गिनती है। १११ शास्त्रों में पाण्डवों की और लौकिक कथाओं में नल की अपकीर्ति आज तक चली आ रही है और हजारों लाखों वर्षों तक बल्कि असंख्य वर्षों तक चलेगी। जुआ खेलनेवाले रात्रि-दिन का भेद नहीं जानते। उन्हें अपने व्यसन के कारण यह पता ही नहीं चलता कि कब रात हो गई, कब प्रातः काल हुआ। भोजन, पान, शयन, देवदर्शन, स्वाध्याय और सज्जनसङ्गति आदि सत्कार्यों के लिए उन्हें यथोचित अवकाश ही नहीं मिलता। इसका यह फल होता है कि उनका शारीरिक स्वास्थ्य अनियमित आहार-विहार तथा दुःसङ्गति के कारण विकृत हो जाता है। वे अपनी आजीविका के साधनों को खो बैठते हैं। यदि वे व्यापारी है तो जुए के कारण व्यापार को समय नहीं मिल पाता। वह नष्ट हो जाता है। यदि शिल्पकार हैं तो काम कौन करे ? समय कहाँ है व्यसनी को । कृषिकर्ता का कृषिका समय निकल जाता है। यदि समय पर खेती हो भी गई तो जब तक ये जुआ खेलते हैं तब तक खेती बिना देख रेख के चोरों और जंगली जानवरों द्वारा चौपट हो जाती है। ऐसे व्यसनी को कोई भी मालिक नौकर नहीं रखता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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