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________________ श्रावकधर्मप्रदीप अचानक न आ जाय? आकाश से बिजली अमुक जगह गिरी है ऐसा सुना है, कहीं मेरे ऊपर बिजली गिर पड़े तो क्या होगा? अमुक पुरुष रोग के कारण बहुत कष्ट में हैं। कहीं मेरे ऐसा रोग हो गया तो क्या होगा? मैं क्या करूँगा? अनेक राजबन्दीगृह में बहुत बड़े-बड़े कष्ट उठाते हैं, मारे जाते हैं, पीटे जाते हैं। मैं तो निरपराध हूँ। पर यदि मुझ पर ही कोई मिथ्या राजकीय अपराध लगा दे तो मेरी क्या दशा होगी । इत्यादि प्रकार से अकस्मात् भय के कारणों की शङ्काकर मिथ्यादृष्टि जन दुःखित होते हैं। ९२ किन्तु वस्तुतत्त्व के वेत्ता पुरुष ऐसी शंका या भय नहीं करते। सद्बुद्धिवाले व्यक्ति को यह विचार करना चाहिए कि मेरे यदि पुण्योदय विशेष है तो इनमें से कोई भी विपत्तियाँ मुझपर कदापि नहीं आ सकतीं। यदि कदाचित् मेरा पुण्य क्षीण होगा और पापोदय प्रबल होगा तो मैं केवल भय करके भी तो नहीं बच सकता। स्वार्जित कर्म पुण्य हो या पाप उसका फल भोगना अनिवार्य है, तब उससे भय कैसा? यदि मैं कर्मोदय का फल नहीं भोगना चाहता तो मुझे भविष्य के लिए सावधान हो जाना चाहिए। मुझे उचित यह है कि मैं ऐसे कर्म अब न करूँ जिनसे भविष्य में दुःख या अशान्ति का भाजन बनना पड़े। मैं अपने आत्मा का स्वामी हूँ। मेरे ज्ञान दर्शन सुख क्षमा सन्तोष आदि पवित्र गुण हैं। संसार में कर्मोंदय के कारण मेरे नरनारकादि पर्यायें होती हैं। तथापि शुद्ध विज्ञानमय स्वानन्दमय परणति ही मेरी परणति है । मेरा आत्मा असंख्यप्रदेशी है, अमूर्तिक है, पुद्गलादि परपदार्थों से सर्वथा भिन्न है। स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव का धनी है। पुद्गलादि अचेतन द्रव्य और अन्य जीवादि सचेतन द्रव्यों से, उनके प्रदेशों से, उनकी परणतियों से और उनके स्वतन्त्र गुणों से मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। वे सब परचतुष्टय न मेरे हैं और न मैं उनका हूँ। न वे मुझमें प्रवेश कर सकते हैं, और न मैं उनमें प्रवेश कर सकता हूँ। न वे मेरा बिगाड़ कर सकते हैं और न मैं उनका बिगाड़ कर सकता हूँ। ऐसा वस्तु स्वरूप होते हुए भी मैं पर द्रव्यों के अनायास निमित्त मिलने पर या मिलने की व्यर्थ की आशंका पर भयभीत होकर अकस्मात् भय का पात्र बनकर अपने चैतन्यस्वरूप से विहीन होकर दुःखी बन जाऊँ तो यह मेरा बहुत बड़ा अज्ञान होगा। ऐसे वस्तु के यथार्थ स्वरूप के विचार करने पर सम्यग्दृष्टि के किसी भी प्रकार के भय का सञ्चार नहीं होता। वह स्वात्मस्वरूप में दृढ़ होकर अपने को सब प्रकार से सुरक्षित मानता है। वह जानता है कि जब मेरा आत्मा अखण्ड, अच्छेद्य और अभेद्य है तब किसी पदार्थ से भय कैसा? वह ज्ञानवान् होकर सदा निर्भय विचरण करता है । ६५ । ६६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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