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________________ ७८ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका असत् । वह तो कथंचित् सत् है और कथंचित् असत् है। इस प्रकार जीवमें सत्त्व और असत्त्व दोनों धर्म पाये जाते हैं। इसी प्रकरणमें आप्तमीमांसामें कहा गया है सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्नो चेन्न व्यपदिष्टते ॥ १५ ॥ अब यहाँ यह बतलाया जा रहा है कि अस्तित्व (विधि) और नास्तित्व (निषेध) वस्तु तत्त्व से न तो सर्वथा भिन्न हैं और सर्वथा अभिन्न । अस्तित्वक' पदार्थोसे सर्वथा भेद माननेपर सब पदार्थ असत् हो जावेंगे । जब अस्तित्व पदार्थोसे सर्वथा पृथक् है तब पदार्थ सत् कैसे होंगे। यदि अस्तित्व पदार्थों में नहीं रहता है तो निराश्रय हो जानेके कारण उसका भी अस्तित्व नहीं रहेगा। इस प्रकार शन्यता ही शेष रह जायेगी। इसी प्रकार नास्तित्वका पदार्थोंसे सर्वथा भेद मानने पर पदार्थोंमें संकर दोषका प्रसंग आता है। नास्तित्वको पदार्थसे सर्वथा भिन्न माननेपर जिस प्रकार घट घटरूपसे सत् है, उसी प्रकार वह पटरूपसे भी सत् हो जायेगा । क्योंकि घटसे नास्तित्वका अत्यन्त भेद होनेके कारण घटमें पटका नास्तित्व नहीं रहेगा। यही संकर दोष है। सबकी एक साथ प्राप्ति होनेको संकर दोष कहते हैं । घटसे नास्तित्वका सर्वथा भेद माननेपर घटमें पटादि सब पदार्थोंके अस्तित्वका एक साथ प्रसंग प्राप्त होनेसे संकर दोष अनिवार्य है। इस प्रकार सब पदार्थ सब रूप हो जावेंगे। घट पटरूप हो जायेगा और जीव अजीवरूप हो जायेगा । ऐसी स्थितिमें पदार्थोंकी कोई सुनिश्चित व्यवस्था न होनेके कारण शून्यताका दोष स्वाभाविक है। अब यदि माना जाय कि अस्तित्व और नास्तित्व पदार्थसे सर्वथा अभिन्न हैं. तो भी शून्यताका दोष आता है । क्योंकि ऐसा माननेपर सब पदार्थोंका अस्तित्व नास्तित्वरूप हो जायेगा और जब सब पदार्थों का अस्तित्व ही नहीं रहेगा तब सर्वशून्यताका प्रसंग प्राप्त होना दुनिवार है। सर्वथा अभेद पक्ष माननेपर जिस प्रकार अस्तित्वमें नास्तित्वका प्रसंग आता है उसी प्रकार नास्तित्वमें अस्तित्वका भी प्रसंग प्राप्त होता है । और तब सब पदार्थोंका नास्तित्व अस्तित्वरूप हो जायेगा । ऐसी स्थितिमें भी पूर्ववत् संकर दोष उपस्थित होता है । घटमें पटादिके संकर दोषका निराकरण घटमें पटादिके अभावके द्वारा होता है । अर्थात् घटमें पटादिके नास्तित्व के कारण घट पटादिरूप नहीं है। किन्तु जब घटमें पटादिका नास्तित्व नहीं रहेगा तब घट पटादिरूप हो जायेगा। जीवमें अजीवका नास्तित्व न रहनेसे जीव अजीवरूप हो जायेगा । इसी प्रकार सब पदार्थ सब रूप हो जावेंगे। और ऐसी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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