________________
श्री सुपार्श्व जिन स्तवन
सुखादिकी प्राप्तिके लिए व्यर्थ ही स्वयं तप्तायमान होता रहता है, कष्ट उठाता रहता है । अतः जो विवेकी जीव है वह जानता है कि भवितव्यताके प्रतिकूल होनेपर कार्यकी सिद्धि नहीं होती है। अतः वह अनुकूल भवितव्यताकी सिद्धिके लिए प्रयत्न करता है और भवितव्यता के अनुकूल होनेपर समस्त इष्ट कार्य सिद्ध हो जाते हैं। श्री सुपार्श्व जिनका ऐसा उपदेश जानकर तदनुकूल आचरण करना चाहिए।
सर्वस्य तत्त्वस्य भवान् प्रमाता
___ मातेव बालस्य हितानुशास्ता । गुणावलोकस्य जनस्य नेता
मयापि भक्त्या परिणूयतेऽद्य ॥ ५॥ (३५) सामान्यार्थ-हे सुपार्श्व जिन ! आप सब तत्त्वोंके प्रमाता हैं । बालकको माताके समान अज्ञानी जनोंको हितका उपदेश देनेवाले हैं । और गुणोंकी खोज करनेवाले जनोंके नेता हैं । इसलिए मैं भक्तिपूर्वक आपकी स्तुति कर रहा हूँ ।
विशेषार्थ-भगवान् सुपार्श्वनाथ जीवादि समस्त तत्त्वोंके प्रमाता हैं। प्रमाताका अर्थ है-संशय, विपर्यय और अनध्यवसायसे रहित सम्यग्ज्ञान (केवलज्ञान) के द्वारा समस्त पदार्थोंका ज्ञाता । यहाँ सब तत्त्वोंके अन्तर्गत हेय और उपादेय तत्त्व तथा उनके कारणभूत तत्त्व विशेषरूपसे दृष्टव्य हैं। क्योंकि इन्हींके ज्ञानसे संसारी जीवोंका कल्याण होता है। संसार हेय तत्त्व है और मोक्ष उपादेय तत्त्व है । संसारके कारण मिथ्यादर्शनादि हेय हैं और मोक्षके कारण सम्यग्दर्शनादि उपादेय हैं । जिस प्रकार माता अपने बालकके भलेके लिए बालक (सन्तान) को हितकारी बात सिखलाती है, उसी प्रकार सुपार्श्वनाथ भगवान्ने बाल सदृश (हेयोपादेयके विवेक से रहित) अज्ञानी जीवोंके कल्याणके लिए निःश्रेयस और उसके कारण सम्यग्दर्शनादिका उपदेश दिया है। जो जीव मोक्षके कारणभूत सम्यग्दर्शनादि गुणोंके अन्वेषणके इच्छुक हैं उनके नेता श्री सुपार्श्व जिन ही हैं । गुणावलोकी जनका अर्थ है-भव्यजन । नेताका अर्थ है-सन्मार्गप्रवर्तक । तात्पर्य यह है कि सुपार्श्वनाथ भगवान् सब जीवोंके सन्मार्गप्रवर्तक नहीं हैं। किन्तु जो भव्य जीव सम्यग्दर्शनादि गुणोंको प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें उन्होंने उनकी प्राप्तिका उपाय बतला दिया है।
यहाँ सर्व तत्त्व शब्दके द्वारा जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका ग्रहण करना चाहिए । आचार्य गृद्धपृच्छने बतलाया है कि
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org