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________________ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका कारण अग्नि भी वहाँ अवश्य है । इस प्रकार कार्यलिंगजन्य अनुमानसे पर्वतमें वह्नि का ज्ञान किया जाता है । लिंग का पर्यायवाची शब्द हेतु है । अतः कार्यलिंगजन्य अनुमान को कार्यहेतुजन्य अनुमान भी कह सकते हैं। कोई भी कार्य उपादान और निमित्त इन दो कारणोंके अनिवार्य संयोग द्वारा उत्पन्न होता है । दोनों में से किसी एक कारणके अभावमें कार्य त्रिकालमें भी उत्पन्न नहीं हो सकता है। जब सुखादिरूप कोई कार्य हमारे दृष्टिगोचर होता है तब हम सोचते हैं कि इस कार्यका कोई कारण अवश्य होना चाहिए और वह कारण है भवितव्यता। हम भवितव्यताका अनुमान इस प्रकार करते हैंभवितव्यता है, क्योंकि उसका कार्य सुखादि दृष्टिगोचर हो रहा है । यहाँ भवितव्यताके कार्यको देखकर भवितव्यताका अनुमान किया गया है। भवितव्यताके विषयमें यही कार्यलिंगजन्य अनुमान है। इस भवितव्यताकी शक्तिका उल्लंघन नहीं किया जा सकता है । अर्थात् होनहार टाली नहीं जा सकती है । जैसी भवितव्यता होती है उसीके अनुसार सब कारण कलाप मिल जाते हैं । अर्थात् उपादान की योग्यतानुसार कार्योत्पत्तिमें अन्य निमित्त कारण स्वयं मिल जाते हैं । अकलंक देवने 'अष्टशती' में भवितव्यताके सम्बन्धमें एक बहुत ही सुन्दर श्लोक उद्धृत किया है जो इस प्रकार है तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृशः। सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता ॥ अर्थात् जैसी भवितव्यता होती है वैसी ही बुद्धि हो जाती है, व्यवसाय (प्रयत्न) भी वैसा ही होता है और सहायक भी वैसे ही मिल जाते हैं । उक्त श्लोक को आचार्य अकलंकदेव ने 'अष्टशती' में देव और पुरुषार्थके प्रकरण में उद्धृत किया है । यतः आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्री में अष्टशतीको आत्मसात् कर लिया है, अतः अष्टसहस्रो की कारिका ८९ की व्याख्यामें उक्त श्लोक उपलब्ध होता है। अभी तक यह ज्ञात नहीं था कि उक्त श्लोक किस ग्रन्यसे उद्धृत किया गया है। किन्तु अभी यह सुनिश्चितरूपसे ज्ञात हुआ है कि उक्त श्लोक इतिहास प्रसिद्ध चाणक्य को पुस्तक 'चाणक्यनीतिदर्पणम्' से उद्धृत किया गया है । इस पुस्तकमें उक्त श्लोक पाया गया है । यहाँ यह बतलाया गया है कि भवितव्यता या उपादान शक्तिके बिना केवल मंत्र-तंत्रादि बाह्य सामग्री के सन्निधानसे यह जोव सुख-दुःखादिका कर्ता नहीं हो सकता है। मैं सुखादिका कर्ता हूँ, इस प्रकारके अहंकारसे पीड़ित यह संसारी प्राणी भवितव्यता निरपेक्ष होकर मंत्र-तंत्रादि अनेक सहकारी कारणोंको मिलाकर भी सुखादि कार्यों को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होता है । यदि भवितव्यताके बिना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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