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________________ श्रा पद्मप्रभ जिन स्तवन विशेषार्थ-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में एक काम पुरुषार्थ है । कामका सामान्य अर्थ है-इन्द्रिय विषयजन्य सुख और विशेष अर्थ है-स्त्री-पुरुष संसर्गजन्य सुख । संसारका प्रत्येक प्राणी कामके वशमें है और उस पर विजय पाना अत्यन्त कठिन है । इसीलिए कामको देव भी कहा गया है । श्री पद्मप्रभ जिनने ऐसे दुर्जयो कामदेव पर विजय प्राप्त कर ली है । अर्थात् वे कामक्रोधादि विकारोंको जीतकर वीतराग हो गये हैं।। वीतराग होनेके बाद उन्होंने भव्य जीवोंके कल्याणके लिए इस भूमण्डल पर विहार किया । वीतराग होने के कारण उनका विहार किसी राग या लोभ अथवा स्वार्थसे नहीं हुआ, किन्तु किसी इच्छाके बिना ही भव्य जीवोंके नियोगसे हुआ । भगवान्के विहारसे भव्य जीवोंको विभूति की प्राप्ति होती है । हेय और उपादेय पदार्थोंमें विवेकका जागृत होना यह साक्षात् विभूति है और पुण्यबन्धके द्वारा स्वर्गादि की प्राप्ति होना यह परम्परा विभूति है । अतः भगवान्का विहार लोक-कल्याणके लिए होता है । भगवान्के विहार में एक विशेष बात यह होती है कि उनका विहार पृथिवी पर न होकर आकाशमें होता है । तथा देवकृत अतिशयके कारण उनके विहारके समय देवोंके द्वारा आकाशमें सहस्रदल कमलोंकी रचना की जाती है । उन कमलोंके ऊपर उनका स्पर्श न करते हुए भगवान्का विहार होता है । उन सहस्रदल कमलोंके मध्य भाग पर पड़नेवाले श्री पद्मप्रभ जिनके रक्तवर्ण पदतलोंसे ऐसा प्रतीत होता था, मानों आकाशतल अनेक पल्लवों (लाल-लाल किसलय दलों) से व्याप्त हो रहा हो। गुणाम्बुर्विप्रुषमप्यजस्य नाखण्डलः स्तोतुमलं तवर्षेः। प्रागेव मादृक् किमुतातिभक्ति मां बालमालापयतीदमित्थम् ॥ ५ ॥ (३०) सामान्यार्थ-हे ऋषिवर ! गुणसमुद्र और अज (पुनर्जन्मरहित) ऐसे आपके अनन्त गुणोंके लेशमात्रकी भी स्तुति करनेके लिए जब इन्द्र पहले ही समर्थ नहीं हुआ है, तब मेरे जैसा असमर्थ मनुष्य कैसे समर्थ हो सकता है। यह आपके प्रति मेरी तीव्र भक्ति ही है जो मुझ बालकसे इस प्रकारका स्तवन करा रही है । विशेषार्थ-श्री पद्मप्रभ जिन अज हैं । उनका यह जन्म अन्तिम है। अब उनको संसार समुद्रमें आगे परिभ्रमण नहीं करना है। वे ऋषि हैं ( सम्पूर्ण ऋद्धियोंके निधान हैं ) तथा गुणोंके समुद्र हैं। उनके गुणोंकी कोई संख्या नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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