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श्री सुमति जिन स्तवन
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और अन्वयज्ञानसे वास्तविक भेद और अभेद की सिद्धि होती है । दोनों में से किसी एकको सत्य मानकर उपचार ( व्यवहार ) से उचित नहीं है । उपचार तो मृषा ( असत्य ) होता है । तो सिंह है, ऐसा कह कर बालकको उपचारसे सिंह कह बालक वास्तवमें सिंह हो जायेगा, कदापि नहीं । इस प्रकार अनेकत्व और एकत्व - से किसी एकका अभाव स्वीकार करने पर दूसरेका अभाव स्वतः हो जायेगा । क्योंकि उन दोनोंमें अविनाभाव सम्बन्ध है और एकके बिना दूसरेका सद्भाव नहीं बन सकता है । ऐसी स्थिति में जीवादि तत्त्व निःस्वभाव हो जायेगा । और निःस्वभाव होनेसे उसे अवाच्य मानना पड़ेगा। क्योंकि जो सर्वथा निःस्वभाव है उसका किसी भी प्रकारसे कथन नहीं किया जा सकता है । इतना ही नहीं, निःस्वभाव होनेसे जीवादि तत्त्व गगन कुसुमको तरह असत् भी हो जायेगा ।
इस प्रकार श्री सुमति जिनेन्द्रने सुयुक्तिनीत जीवादि तत्त्वोंका भलीभाँति प्रतिपादन किया है ।
सतः कथञ्चित्तदसत्त्वशक्तिः
दूसरेकी कल्पना करना
कभी-कभी 'यह बालक दिया जाता है, तो क्या
सर्वस्वभावच्युतमप्रमाणं
खे नास्ति पुष्पं तरुषु प्रसिद्धम् ।
स्ववाग्विरुद्धं तव दृष्टितोऽन्यत् ॥ ३ ॥
सामान्यार्थ — सत्रूप जीवादि पदार्थों की कथंचित् असत्त्व शक्ति भी होती है । जैसे पुष्प वृक्षों पर है किन्तु आकाशमें नहीं है । यदि तत्त्व सब प्रकारके स्वभावसे रहित है तो वह प्रमाण रहित भी हो जायेगा । हे सुमति जिन ! आपके दर्शन से भिन्न जो अन्य दर्शन हैं वे स्त्रवचन बाधित हैं ।
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विशेषार्थ - प्रत्येक पदार्थ में सत्-असत्, एक-अनेक, भेद-अभेद आदि विरोधी धर्म रहते हैं । यहां यह बतलाया गया है कि एक ही पदार्थ में सत्-असत् आदि विरोधी धर्म किस प्रकार रहते हैं । जीवादि पदार्थ स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षासे सत् है तथा पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षासे असत् है | घट घटरूपसे सत् है और पटादिके रूपसे वह असत् है । सत्त्व और असत्त्व दोनों धर्म सर्वथा निरपेक्ष नहीं हैं, किन्तु सापेक्ष हैं । किसी अपेक्षासे जो सत् है वही किसी दूसरी अपेक्षासे असत् है । स्वद्रव्यादिचतुष्टयकी अपेक्षासे जो सत् है वही परद्रव्यादिचतुष्टय की अपेक्षासे असत् है । जैसे पुष्पका अस्तित्व वृक्षों पर तो है किन्तु आकाशमें नहीं है । पुष्पका दृष्टान्त वादी और प्रतिवादी दोनोंको मान्य है । यहाँ पुष्पके अस्तित्व और नास्तित्वका विचार
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