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________________ श्री अभिनन्दन जिन स्तवन अल्प विषय सुखसे इस जीवको स्थिति कभी भी सुखपूर्वक नहीं रहती है । यतः आपका ऐसा मत लोक हितकारी है इसलिए आप ही सत्पुरुषोंके लिए शरणभूत माने गये हैं। विशेषार्थ-पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्ति विषयासक्त मनुष्यको कभी भी तृप्ति प्रदान नहीं करती है । प्रत्युत वह संताप ही उत्पन्न करती है । विषयासक्तिसे तृष्णा की अभिवृद्धि होती है। इस कारण विषयासक्त मानव प्राप्त विषयोंमें सन्तुष्ट न रहकर उत्तरोत्तर और भी अधिक विषयोंकी आकांक्षासे सदा पीड़ित रहता है। विषयासक्त नर इच्छित वस्तुके न मिलने पर उसकी प्राप्तिके लिए सदा प्रयत्नशील रहता है और मिल जाने पर उसके संरक्षण आदिके लिए चिन्तित रहता है। तथा वह चिन्ताओंसे कभी भी मुक्त नहीं हो पाता है। इस प्रकार उसके संतापकी परम्परा लगातार चाल रहती है। यही कारण है कि इन्द्रियोंके विषयों द्वारा उसे जो थोड़ा सा सुख प्राप्त होता है उससे वह संतुष्ट नहीं रहता है। और इसी कारण कभी भी उसका सुखपूर्वक अवस्थान नहीं बनता है । वह तो सदा दुःखका ही अनुभव करता रहता है। श्री अभिनन्दन जिनका शासन लोक कल्याणकारी है। क्योंकि उसमें यह बतलाया गया है कि विषयोंमें आसक्त रहनेवाला कोई भी प्राणी सुख प्राप्त नहीं कर सकता है। यदि कोई जीव वास्तव में सुख प्राप्त करना चाहता है तो उसे विषयोंमें आसक्तिको छोड़कर विरक्तिका आश्रय लेना चाहिए। तभी उसका कल्याण हो सकता है। श्री अभिनन्दन जिनने ऐसा ही लोक हितकारी उपदेश दिया था। अतः वे स्वकल्याणके इच्छुक सत्पुरुषों के शरणभूत हैं । उनकी शरणमें जाकर ही भव्य जीव अपना कल्याण कर सकते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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