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________________ स्वयम्भूस्तोत्र -तत्त्वप्रदीपिका अतः वे ही यथार्थ शास्ता ( उपदेष्टा ) हैं । कोई भी एकान्तवादी बन्ध, मोक्ष आदि तत्त्वों का यथार्थ उपदेष्टा नहीं हो सकता है | शक्रोऽप्यशक्तस्तव पुण्य कीर्तेः स्तुत्यां प्रवृत्तः किमु मादृशोऽज्ञः । तथापि भक्त्या स्तुतपादपद्मो ममार्य देयाः शिवतातिमुच्चैः ॥ १५ ॥ (१५) सामान्यार्थ - हे आर्य ! प्रशस्त कीर्तिवाले आपकी स्तुति में प्रवृत्त हुआ इन्द्र भी पूर्ण स्तुति करने में असमर्थ रहा है । फिर मुझ जैसा अज्ञानी पुरुष कैसे समर्थ हो सकता है । तो भी मैंने भक्तिपूर्वक आपके चरण कमलोंकी स्तुति की है । अतः आप मुझे उच्चकोटि की शिवसन्तति ( कल्याण परम्परा ) प्रदान करें । विशेषार्थ - यहाँ शंभवनाथ भगवान्‌का आर्य शब्द द्वारा सम्बोधन किया गया है । जो गुणों अथवा गुणवानों के द्वारा सेव्य होता है वह आर्य कहलाता है । श्री शंभव जिन ऐसे ही आर्य हैं। क्योंकि उनमें अनन्तज्ञानादि गुण विद्यमान हैं। तथा वे विशिष्ट ज्ञानादिगुण सम्पन्न मुनि - गणधरादिके द्वारा सेवित हैं । उनकी कीर्ति निर्मल है । यहाँ कीर्ति शब्दके तीन अर्थ किये गये हैं- ख्याति, वाणी और स्तुति । संसार में उनकी ख्याति प्रशस्त ( निर्मल ) है जीवादि तत्त्वोंका कीर्तन ( प्रतिपादन ) करनेवाली उनकी वाणी भी प्रशस्त है । और उनकी स्तुति भी पुण्य बन्धका कारण होनेसे प्रशस्त है । । ऐसे शंभवनाथ भगवान्की इन्द्रने स्तुति की थी । इन्द्र अवधिज्ञानी तथा - समस्त श्रुतका ज्ञाता होता है । जब ऐसा इन्द्र भी श्री शंभव जिनकी पूर्णरूप से स्तुति करने में समर्थ नहीं हो सका तब मुझ जैसा विशिष्ट ज्ञान रहित मानव उनकी स्तुति करने में समर्थ कैसे हो सकता है । किन्तु असमर्थ होते हुए भी मैंने पूर्ण अनुराग के साथ श्रद्धापूर्वक शंभवनाथ भगवान्‌ के चरण-कमलोंकी स्तुति की है । अतः हे श्री शंभव जिन ! इस स्तुति के उपलक्ष्य में आप मुझे उच्चकोटिकी कल्याण परम्परा या सुख परम्परा प्रदान करें । तात्पर्य यह है कि यहाँ स्तुतिकार - स्तुति के फलस्वरूप किसी सांसारिक सुखकी कामना नहीं कर रहा है । वह तो चाहता है कि श्री शंभव जिनकी स्तुतिके प्रसादसे मुझे परम्परा द्वारा सर्वोत्कृष्ट • सुख (मोक्ष सुख) की प्राप्ति हो । इस श्लोक में शक्र शब्द के द्वारा सौधर्म नामक प्रथम स्वर्गके सौधर्म इन्द्रका उल्लेख समझना चाहिए । यद्यपि जन्म कल्याणक आदि अवसरों पर ऐशान आदि अन्य इन्द्र भी आते हैं, किन्तु उनमेंसे सौधर्म इन्द्र ही भगवान्‌की विशेषरूप से सेवा, • स्तुति आदि करता है । क्योंकि उसका ऐसा ही नियोग है । इसी कारण वह एक - भवावतारी होता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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