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________________ ३८ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका करनेवाले, परमागम ज्ञानरूप विद्याके द्वारा कषाय और दोषोंको पूर्णरूपसे नष्ट करनेवाले, अनन्तज्ञानादिरूप आत्मलक्ष्मीको प्राप्त करनेवाले और जिनकी आत्मा इन्द्रियों और कषायोंके द्वारा अजेय है ऐसे श्री अजितनाथ भगवान् मेरे लिए आर्हन्त्यलक्ष्मीकी प्राप्तिका विधान करें। विशेषार्थ-भगवान् अजितनाथ ब्रह्मनिष्ठ हैं । ब्रह्म आत्माको कहते हैं । सकल दोष रहित आत्मस्वरूपमें अवस्थित होनेके कारण उनको ब्रह्मनिष्ठ कहा गया है। मित्र और शत्रुमें उनका समान भाव है । उनको न तो मित्रमें राग है और न शत्रुमें द्वेष है । यहाँ मित्र-शत्रु शब्द उपलक्षण हैं । अर्थात् यहाँ इस शब्द द्वारा तत्सम अन्य वस्तुओंका भी ग्रहण करना चाहिए। जैसे महल-मशान, कंचनकाँच, निन्दा-स्तुति, अर्घ चढ़ाना-असिप्रहार करना इत्यादि । जो ब्रह्मनिष्ठ होता है वह उक्त सब वस्तुओंको समान रूपसे देखता है । उसको किसीमें राग और किसीमें द्वेष नहीं होता है । ऐसा क्यों होता है ? इसका कारण यह है कि उन्होंने परमागमके ज्ञान और तदनुरूप आचरण के द्वारा द्रव्य क्रोधादि रूप कषाय और भाव क्रोधादि रूप दोषोंको सर्वथा नष्ट कर दिया है। इसी बातको इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि उन्होंने मोक्षमार्ग पर चलकर ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म और राग-द्वेषादि भावकर्मको समल नष्ट कर दिया है। इसी कारण उन्होंने अनन्तज्ञानादिरूप आत्मलक्ष्मीको प्राप्त कर लिया है । तथा जिनकी आत्मा इन्द्रियों और कषायों आदिके द्वारा जीती नहीं जा सकी है । अर्थात् जो इन्द्रियों और कषायोंके अधीन न होकर आत्मस्वरूपमें स्थित हैं। ऐसे अजितनाथ भगवान् मेरे लिए शुद्धात्मलक्ष्मीकी प्राप्ति का विधान करें । तात्पर्य यह है कि मैं उनके द्वारा बतलाये गये मार्गपर चल कर अपनी आत्माको कर्मबन्धनसे मुक्त कर जिन लक्ष्मीको प्राप्त करने में समर्थ हो सकूँ। यहाँ स्तुतिकारने किसी भौतिक सुख या वस्तुकी कामना न करके केवल यही कामना की है कि हे भगवन् ! आपके प्रसादसे मुझमें ऐसी शक्ति आ जावे जिससे मैं कर्मबन्धनको समाप्त कर आपके समान बन सकें। ___इस श्लोकके तृतीय चरणमें श्री मुख्तार सा० के सम्पादनमें 'अजितोऽजितात्मा' ऐसा पाठ है जो ठीक मालम पड़ता है। अन्य मुद्रित प्रतियोंमें 'अजितात्मा' के स्थानमें 'जितात्मा' पाठ है। 'अजितात्मा' का अर्थ है-जिनकी आत्मा इन्द्रिय आदिके द्वारा जीती नहीं जा सको है । अर्थात जो इन्द्रिय आदिके अधीन न होकर स्वाधीन हैं । 'जितात्मा'का अर्थ होता है-जिन्होंने अपनी आत्माको जीत लिया है। यहाँ आत्माको जीतनेका कोई विशेष अर्थ नहीं निकलता है । इसका भी तात्पर्य यही है कि जिनकी आत्मा इन्द्रियाधीन नहीं है । अतः 'अजितात्मा' पाठ अधिक उपयुक्त है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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