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________________ (२) श्री अजित जिन स्तवन यस्य प्रभावात् त्रिदिवच्युतस्य क्रीडास्वपि क्षीबमुखारविन्दः । अजेयशक्तिभुवि बन्धुवर्ग श्चकार नामाजित इत्यबन्ध्यम् ॥१॥ सामान्यार्थ-देवलोकसे अवतरित हुए जिनके प्रभावसे उनका बन्धुवर्ग उनकी बाल क्रीड़ाओंमें भी हर्षोन्मत्त मुख कमलसे युक्त हो जाता था। तथा जिनके माहात्म्यसे वह बन्धुवर्ग इस भूमण्डलपर अजेयशक्तिका धारक हुआ था। इसीलिए उस बन्धुवर्गने द्वितीय तीर्थंकरका 'अजित' यह सार्थक नाम रक्खा था । विशेषार्थ-भगवान् अजितनाथ विजय नामक अनुत्तर विमानसे इस भूतल पर अवतरित हुए थे। वे इतने प्रभावशाली थे कि उनकी बाल क्रीड़ाओंको देखकर उनके कुटुम्बी जनोंका मुख कमल हर्षसे प्रफुल्लित हो जाता था। ऐसा होना स्वाभाविक भी है। साधारण बालककी क्रियाओंको देखकर परिवारके लोग प्रसन्न होते हैं । फिर वे तो भगवान् थे। उनकी बाल क्रीड़ायें सबके लिए आनन्ददायक होनी ही चाहिए । 'क्रीडास्वपि' यहाँ अपि शब्दसे यह भी तात्पर्य निकलता है कि उनके लोकोत्तर कार्य तो आनन्दप्रद थे ही, किन्तु बाल क्रीड़ायें भी आनन्दप्रद थीं। ___ भगवान् अजितनाथका ऐसा माहात्म्य था कि उस माहात्म्यके प्रभावसे उनका बन्धुवर्ग इस भूतलपर अजेय शक्तिका धारक हो गया था। उनके बन्धुवर्गको बड़े-बड़े युद्धोंमें भी कोई जीत नहीं सका था। यहाँ ऐसा भी अर्थ किया जा सकता है कि उनका बन्धुवर्ग न केवल बड़े-बड़े युद्धोंमें अजेयशक्तिका धारक था, किन्तु बाल क्रीड़ाओंमें भी वह अजेय रहता था । बाल क्रीड़ाओंसे भी उनके बन्धुवर्गको कोई जीत नहीं सकता था। अपनी इस अजेयशक्तिके कारण उनके बन्धुवर्गका मुख कमल सदा प्रफुल्लित रहता था। अतः अजेय शक्तिके धारक बन्धवर्गने द्वितीय तीर्थंकरका ‘अजित' नाम रक्खा था। यह नाम सर्वथा सार्थक है । अजित का अर्थ होता है जो किसोके द्वारा जोता न जा सके । भगवान् अजितनाथ ऐसे ही थे । वे न तो बाह्य शत्रुओंसे जीते जा सके और नः अन्तरंग कर्म शत्रुओंसे जीते जा सके । प्रत्युत उन्होंने बाह्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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