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________________ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका से निराकृत हो जाता है । अनेकान्त शासन समस्त एकान्तवादोंका समन्वय करता है। वह कहता है कि वस्तु न तो सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य । किन्तु कथञ्चित् नित्य है और कथञ्चित् अनित्य । वह द्रव्यकी अपेक्षासे नित्य है और पर्यायकी अपेक्षासे अनित्य । इसी बातको इस प्रकार कहा जा सकता है कि द्रव्याथिक नयकी दृष्टिसे वस्तु नित्य है और पर्यायाथिक नयकी दृष्टिसे वह अनित्य है । यहाँ यह द्रष्टव्य है कि श्री वृषभनाथ आदि तीर्थङ्करोंके समयमें भले ही सांख्य, बौद्ध आदि नामधारी एकान्तवादी न रहे हों, किन्तु नित्यैकान्तवादी, क्षणिकैकान्तवादी आदि अनेक प्रकार के एकान्तवादी सदा रहे हैं । प्रथम तीर्थङ्कर चौदहवें कुलकर नाभिरायके पुत्र हैं । उनका नाम वृषभ है । वृषका अर्थ है-धर्म । वृषभका अर्थ है-जो धर्मसे सुशोभित होता है अथवा जो धर्मको सुशोभित करता है वह वृषभ कहलाता है। प्रथम तीर्थङ्करके तीन नाम है-आदिनाथ, वृषभनाथ और ऋषभनाथ । चौबीस तीर्थङ्करोंमें आदि (प्रथम) होनेके कारण उनका नाम आदिनाथ है । धर्मतीर्थके प्रवर्तक होनेके कारण उनका नाम वृषभनाथ है । उनका चिह्न ऋषभ (बैल) है। उनकी प्रतिमाओं में बैलका चिह्न अंकित रहता है । इसलिए उनको ऋषभनाथ कहते हैं । उक्त तीनों नामोंमेंसे ऋषभनाथ नाम अधिक प्रचलित है। उक्त सर्वदर्शी आदि विशेषणोंसे विशिष्ट ऋषभनाथ जिनेन्द्र मेरे चित्तको पवित्र करें । यहाँ स्तुतिकारने स्तुति करनेके फलके रूपमें ऋषभ जिनेन्द्रसे केवल चित्तको पवित्र करनेको कामना की है। सांसारिक ऐश्वर्य, स्त्री, पुत्रादिको कामना नहीं की । जिनेन्द्र भगवान् सांसारिक ऐश्वर्य आदि दे भी नहीं सकते हैं । वे तो वीतराग हैं। वे किसीकी स्तुतिसे न तो प्रसन्न होते हैं और निन्दा करनेसे अप्रसन्न भी नहीं होते हैं। __ श्रीवृषभ जिनकी स्तुतिके प्रकरणमें यह विशेषरूपसे दृष्टव्य है कि 'स विश्वचक्षुः' इस विशेषणके द्वारा यहाँ मोमांसक मतका निराकरण किया गया है। मीमांसक मतकी मान्यता है कि कोई पुरुष सर्वज्ञ नहीं हो सकता है। वह अपने ज्ञानका इतना विकास नहीं कर सकता है कि उसके द्वारा संसारके समस्त पदार्थोंको साक्षात् जाननेमें समर्थ हो जावे । इसके विपरीत जैनदर्शन सप्रमाण सिद्ध करता है कि दोष और आवरणोंका सर्वथा क्षय हो जाने पर यह जीव अनन्तज्ञान अथवा केवलज्ञान प्राप्त करके सर्वज्ञ हो जाता है । आचार्य समन्तभद्रने आप्तमीमांसामें सर्वज्ञत्वको विस्तारपूर्वक सिद्ध किया है। क्या दोष और आवरणोंकी १. सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद् यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥ ५ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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