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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदोपिका
स्वदोषमूलं स्वसमाधितेजसा
निनाय यो निर्दयभस्मसात्क्रियाम् ।
जगाद तत्त्वं जगतेऽथनेऽञ्जसा
बभूव च ब्रह्मपदामृतेश्वरः ॥ ४ ॥
सामान्यार्थ - जिन्होंने अपने राग, द्वेष, मोह आदि समस्त दोषोंके मूल - कारण चार घातिया कर्मों को अपने परम शुक्लध्यानरूपी तेज (अग्नि) के द्वारा निर्दयतापूर्वक नष्ट कर दिया और तत्त्व ज्ञानके अभिलाषी जीवोंके लिए यथार्थ - रूपसे जीवादि तत्त्वों का स्वरूप बतलाया तथा अन्त में जो ब्रह्मपद (मोक्ष अवस्था ) में अमृत (अविनाशी सुख) के ईश्वर (स्वामी) हुए ।
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गुणस्थान में पहुँच कर
कारण ज्ञानावरण,
विशेषार्थ - दीक्षाग्रहण करनेके बाद एक हजार वर्ष तक कठोर तपस्या करते हुए भगवान् ऋषभनाथने आत्मविकास द्वारा तेरहवें आत्माके राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोधादि समस्त दोषोंके मूल दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया कर्मों को परम शुक्लध्यान. रूपी अग्निके द्वारा निर्दयतापूर्वक नष्ट कर दिया था । यहाँ निर्दय शब्द ध्यान देने योग्य है । चार घातिया कर्मों को भस्म करनेमें ऋषभनाथने किञ्चित् भी दयाभाव नहीं दिखलाया । ऐसा करना आवश्यक भी था । यदि उस समय घातिया कर्मों पर दयाभाव दिखलाया जाता तो उनका पूर्णरूपसे नाश संभव नहीं होता । यही कारण है कि उनको निर्दयतापूर्वक नष्ट करना पड़ा ।
रागादि दोषों के नष्ट हो जानेपर वे वीतराग हो गये और ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मोंके नष्ट हो जाने पर सर्वज्ञ हो गये । अब उनका काम भव्य जीवों को हितोपदेश करना ही शेष रह गया । उन्होंने संसारके प्राणियों को उपदेश * तभी दिया जब वे वीतराग और सर्वज्ञ हो गये । उस समय उन्होंने तत्त्वज्ञान के इच्छुक जीवोंको जीवादि तत्त्वों का तथा मोक्षमार्गका जो उपदेश दिया वह . सम्यक् अथवा यथार्थ था । क्योंकि रागी -द्वेषी व्यक्ति प्रलोभन आदिके वसे . अन्यथा भी उपदेश दे सकता है । किन्तु वीतरागी जिन अन्यथावादी नहीं होते हैं । चार घातिया कर्मोंके नष्ट हो जाने पर अर्हन्त अवस्थामें अनन्तज्ञान, दर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य इन चार अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति हो जाती है तथा क्षुधा, तृषा आदि की बाधा सर्वथा समाप्त हो जाती है । अतः कुछ लोगों द्वारा - ' केवली कवलाहार करते हैं' ऐसी कल्पना करना सर्वथा अनुचित है । `केवली तो अतीन्द्रिय अनन्त सुखके स्वामी होते हैं । भगवान् ऋषभनाथ ऐसे ही थे । और अन्तमें उन्होंने अविनाशी मोक्ष सुखको प्राप्त कर लिया था ।
अनन्त
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