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________________ प्रस्तावना २१ और ५. रत्नकरण्डश्रावकाचार। ये पांचों ग्रन्थ उपलब्ध हैं और प्रकाशित हैं। रत्नकरणश्रावकाचारको छोड़कर शेष चारों ग्रन्थ स्तुतिपरक है। इन उपलब्ध ग्रन्थोंके अतिरिक्त आचार्य समन्तभद्र के द्वारा रचित निम्नलिखित दो ग्रन्थोंके उल्लेख और मिलते हैं-१. जीवसिद्धि और २. गन्धहस्तिमहाभाष्य । श्री जिनसेनाचार्यने हरिवंशपुराण में जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त्यनुशासनम् । इम वाक्यके द्वारा जीवसिद्धिका उल्लेख किया है। इसी प्रकार चौदहवीं शताब्दीके विद्वान् हस्तिमल्लने अपने विक्रान्तकौरवकी प्रशस्ति में तत्त्वार्थसूत्रव्याख्यानगन्धहस्तिप्रवर्तकः । स्वामी समन्तभद्रोऽभूद् देवागमनिदेशकः । इस पद्यके द्वारा गन्धहस्तिमहाभाष्यका उल्लेख किया है । जैनदर्शनके इतिहासमें समन्तभद्र का स्थान : अनेकान्त और स्याद्वाद जैनदर्शनके प्राण हैं और आचार्य समन्तभद्र स्याद्वादविद्याके प्राणप्रतिष्ठापक । यह कहा जा सकता है कि समन्तभद्रके पहले जिन तत्त्वों की प्रतिष्ठा आगमके आधार पर प्रचलित थी, आचार्य समन्तभद्रने उन्हीं तत्त्वों को दार्शनिक शैलोमें स्याद्वादन्याय अथवा प्रमाण और नयके आधार पर प्रतिष्ठित किया है । स्यावाद की सिद्धि करना ही उनका मुख्य ध्येय था । यद्यपि उन्होंने न्यायशास्त्रके विषयमें विशेष नहीं लिखा है, फिर भी अनेकान्त, स्याद्वाद, सप्तभंगी, प्रमाण और नय की स्पष्ट व्याख्या करके जैन न्याय की नींव अवश्य रक्खी है। इन्हींके ग्रन्थोंमें न्याय शब्दका प्रयोग सबसे पहले देखा जाता है। उपेयतत्त्वके साथ ही उपायतत्त्व आगम और हेतुमें अनेकान्त की योजना करके उन्होंने अनेकान्तके क्षेत्र को व्यापक बनाया है । उनके समयमें हेतुवाद आगमवादसे पृथक् हो गया था। अतः उन्हें हेतुवादके आधार पर आप्त की मीमांसा करना उचित प्रतीत हुआ । उन्होंने प्रमाणको स्याद्वादनयसंस्कृत बतलाकार श्रुतज्ञान को स्याद्वाद शब्दसे सम्बोधित किया है । सुनय और दुर्नय की व्यवस्था, दार्शनिक दृष्टिसे प्रमाणका व्यवस्थित लक्षण, प्रमाणके फलका निरूपण और अनेकान्तमें भी अनेकान्त की योजना, यह सब सर्वप्रथम समन्तभद्रने ही किया है । यथार्थमें समन्तभद्रका समय भारतीय दर्शनके इतिहासमें एक बहुत बड़ी क्रान्ति का समय था। उस समय भावैकान्त, अभावैकान्त, नित्यैकान्त, अनित्यैकान्त, भेदैकान्त, अभेदैकान्त, हेतुवाद, अहेतुवाद, दैववाद, पुरुषार्थवाद आदि अनेक प्रकारके एकान्तवादोंका प्राबल्य था। समन्तभद्रने उन एकान्तवादोंका सूक्ष्मरूपसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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