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चढ़ायी गयी विशाल सामग्रीको देखकर समन्तभद्रने सोचा कि यदि यह सामग्री मुझे मिल जाय तो इससे मेरी क्षुधाकी शान्ति हो सकती है । अत: उन्होंने शिव मन्दिर प्रबन्धकों से कहा कि मैं इस भोग सामग्रीको शिवमूर्तिको खिला सकता हूँ । इस बात से प्रसन्न होकर शिव मन्दिरके प्रबन्धकोंने उन्हें मन्दिर में रहने की स्वीकृति दे दी । इस प्रकार समन्तभद्र अपनी चतुराईसे पुजारीके रूपमें शिव मन्दिर में रहने लगे और मन्दिरका दरवाज़ा अन्दर से बन्द करके उस विशाल भोग सामग्रीको स्वयं खाने लगे । बाद में दरवाजा खोलकर लोगोंको बता दिया करें कि देखो शिवजीने भोग ग्रहण कर लिया है ।
प्रस्तावना
ऐसा करते हुए कुछ दिनमें उनकी व्याधि शान्त हो गयी । तब भोग सामग्री बचने लगी । ऐसी स्थिति में कुछ लोगोंने वाराणसीके राजासे शिकायत कर दी 'कि यह पुजारी न तो शिवभक्त है और न शिवजीको भोग सामग्री खिलाता है । इस बात को सुनकर राजा क्रोधित होकर वहाँ आया और समन्तभद्रसे कहा कि 'शिवमूर्ति को नमस्कार करो अन्यथा दण्ड भुगतने को तैयार रहो । इसके उत्तर में समन्तभद्र ने कहा कि यह मूर्ति मेरे नमस्कारको सहन नहीं कर सकेगी । किन्तु राजाका तीव्र आग्रह देखकर वे उपसर्ग निवारणार्थ शिवमूर्ति के समक्ष बेठकर वृषभादि चौबीस तीर्थङ्करोंका स्तवन करने लगे । सात तीर्थङ्करोंके स्तवन के बाद जब वे आठवें तीर्थङ्कर श्री चन्द्रप्रभ जिनका स्तवन कर रहे थे तब शिवपिण्डी 'फट गयी और उसमें से चन्द्रप्रभ भगवान्को मूर्ति प्रकट हुई । इस चमत्कार पूर्ण घटनाको देखकर वहाँ उपस्थित राजा सहित सब लोगोंने जैनधर्मका जय-जयकार किया और वे लोग जैनधर्म से प्रभावित होकर उसके अनुयायी हो गये । इस प्रकार जैनधर्मकी महती प्रभावना हुई । अन्तमें राजा शिवकोटिने अपने पुत्र श्रीकंठको राज्य सौंपकर अपने भाई शिवायन के साथ दिगम्बरो दीक्षा धारण कर ली और आचार्य समन्तभद्र के शिष्य हो गये । आचार्य समन्तभद्रने शिवमूर्ति के सामने बैठकर जिस स्तोत्र की रचना की थी वही स्तोत्र स्वयम्भूस्तोत्र के नामसे प्रसिद्ध है ।
वाराणसीमें पहले उक्त शिव मन्दिर विशाल रहा होगा । किन्तु वर्तमान में वह शिव मन्दिर एक मढ़िया के रूपमें चौकके निकट बाँसफाटक पर सड़क किनारे स्थित है । उसमें जो शिवलिंग है वह बीचसे फटा हुआ है । इस कारण उसे आज भी फटे महादेव कहा जाता है । उस मन्दिर पर समुद्रेश्वर महादेव लिखा हुआ है । संभवतः पहले उसका नाम समन्तभद्रेश्वर महादेव रहा होगा और कालान्तर में उसका अपभ्रंश रूप समुद्रेश्वर महादेव हो गया ।
आचार्य समन्तभद्रको भस्मकव्याधि रोग हो गया था और उन्होंने अपने मंत्रबल या योगबल से चन्द्रप्रभ भगवान्की मूर्तिको बुला लिया था, इस बातकी
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