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________________ प्रस्तावना चौदहवें तीर्थंकर श्री अनन्त जिनके द्वारा अनन्त दोषोंका आश्रय मोहरूप "पिशाच जीत लिया गया है। उन्होंने कामदेव के आतंकको समाधि के द्वारा नष्ट किया था तथा कषाय रूप शत्रुओं का नाश करके वे सर्वज्ञ हुए थे। उन्होंने अपनी तृष्णा नदीको अपरिग्रहरूप सूर्य की किरणोंसे सुखा दिया था। जो व्यक्ति श्री अनन्त जिन में अनुराग रखता है वह सौभाग्यको प्राप्त होता है और जो द्वेष रखता है वह विनाशको प्राप्त हो जाता है। जिस प्रकार अमत-समुद्रका संस्पर्श कल्याणकारक है उसी प्रकार श्री अनन्त जिन के थोड़ेसे गुणोंका कीर्तन भी जीवों के कल्याण का हेतु होता है। पन्द्रहवें तीर्थंकर श्री धर्म जिन ने अनवद्य धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया था और तपरूप अग्निके द्वारा कर्मरूप वनको जलाया था । यद्यपि वे अष्ट प्रातिहार्यों और समवसरणादि विभूतियोंसे विभूषित थे, फिर भी शरीरसे भी विरक्त होकर और शासनके फल की आकांक्षाके बिना ही उन्होंने मोक्ष मार्ग का उपदेश दिया था । उनके मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ इच्छापूर्वक नहीं हुई थीं और असमीक्ष्यकारित्वके रूप में भी नहीं हुई थीं। वे मानुषी प्रकृतिका उल्लंघन कर गए थे। वे देवताओंके भी देवता थे और इसी कारण परमदेवता के पद को प्राप्त हुए थे। ___ सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्ति जिन शत्रुओं के लिए भयंकर सुदर्शन चक्रसे सर्वनरेन्द्र चक्र को जीत कर चक्रवर्ती राजा बने थे और समाधि चक्रसे दुर्जय मोहचक्र को जीत कर महोदय को प्राप्त हुए थे। उनके चक्रवर्ती राजा होने पर राजचक्र, मुनि होने पर धर्मचक्र और पूज्य होने पर देवचक्र बद्धाञ्जलि हुआ था। तथा अन्त में ध्यानके सन्मुख होने पर कृतान्तचक्र नाश को प्राप्त हुआ था । श्री शान्ति जिनने पहले अपने रागादि दोषों को शान्त करके आत्मशान्ति प्राप्त की थी और इसके बाद ही वे शरणागत मनुष्योंके लिए शान्ति के विधाता हुए थे। __ सत्रहवें तीर्थंकर श्री कुन्थु जिन कुन्थु आदि समस्त जीवों पर परम दयालु थे। वे पहले चक्रवर्ती राजा हुए और बादमें प्रजा जनोंके कल्याणके जिए उन्होंने धर्मचक्र का प्रवर्तन किया। उन्होंने बतलाया था कि विषय भोगोंसे तृष्णा की वृद्धि होती है, शान्ति को प्राप्ति नहीं होती। और इसी कारण वे विषय सौख्यसे परान्मुख हो गये थे। वे ध्यानाग्नि में घातिया कर्मोंको भस्म करके सकल वेदविधिके प्रणेता बने थे । लोकमें जो पितामहादि प्रसिद्ध देवता हैं वे श्री कुन्थु जिनकी विद्या और विभूति की एक कणिका को भी प्राप्त नहीं कर सके थे। अठारहवें तीर्थंकर श्री अर जिन चक्रवर्ती राजा थे। उन्होंने मुमुक्षु होने पर सम्पूर्ण साम्राज्यको जीर्ण तृण के समान छोड़ दिया था। उनके रूपसौन्दर्य को दो जेत्रों से देखकर इन्द्र तृप्त नहीं हुआ और उसे सहस्राक्ष बनना पड़ा। उनके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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