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________________ प्रस्तावना की गयी है। यहाँ वस्तुतत्त्व को एक-अनेक, सत्-असत्, नित्य-अनित्य, विधिनिषेध इत्यादि प्रकारसे अनेक धर्मात्मक अथवा अनेकान्तात्मक सिद्ध किया गया है । सर्वथा एकान्तवादमें समस्त क्रियाओं तथा कर्ता, कर्म, करण आदि कारकोंकी सिद्धि नहीं हो सकती है। असतकी उत्पत्ति नहीं होती है और सत्का विनाश नहीं होता है । सत-असत्, नित्य-अनित्य आदि धर्मों में विवक्षाके द्वारा मुख्य और गौणकी व्यवस्था होती है । इस प्रकार श्री सुमति जिनने तत्त्वका प्रणयन किया है । षष्ठ तीर्थंकर श्री पदमप्रभ जिन रक्तवर्ण शरीरके धारक थे । सम्पूर्ण समवसरण सभामें उनके शरीरकी आभा व्याप्त थी । उनके गणोंकी स्तुति करने में इन्द्र भी असमर्थ रहा है । उन्होंने प्रजा जनोंमें हेयोपादेयका विवेक जागृत करनेके लिए इस भूमण्डल पर बिहार किया था। वे भव्यरूप कमलोंके विकासके लिए सूर्यके समान थे । तथा केवलज्ञानरूप लक्ष्मी और दिव्यध्वनिरूप सरस्वतीके धारक थे। सप्तम तीर्थंकर श्री सुपार्श्व जिनके स्तवनमें बतलाया गया है कि जो आत्यन्तिक स्वास्थ्य है वही पुरुषोंका स्वार्थ है, क्षणभंगुर भोग स्वार्थ नहीं है । जीवका यह शरीर जड़ है और जड़ यंत्रकी तरह पुरुषके द्वारा स्वव्यापार में प्रवृत्त होता है । भवितव्यता अलंध्य है । यह संसारी प्राणी मत्युसे डरता है, परन्तु उसे मृत्युसे छुटकारा नहीं मिलता है। और नित्य ही कल्याण चाहता है, फिर भी उसकी प्राप्ति नहीं होती है । श्री सुपार्श्व जिन सर्व तत्त्वोंके प्रमाता और बालकको माताकी तरह लोकके हितानुशास्ता थे। ____ अष्टम तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभ जिन चन्द्रमाकी किरणोंके समान गौर वर्णके धारक थे । उनके शरीरकी दिव्य कान्तिसे बाह्य अन्धकार तथा ध्यानरूप प्रदीपके अतिशयसे मानस अन्धकार दूर हो गया था। उनके प्रवचनरूप सिंहनादोंको सुनकर एकान्तवादी जन उसी प्रकार गर्व रहित हो गये थे जिस प्रकार सिंहकी गर्जना सुनकर मदस्रावी हाथी मद रहित हो जाता है। वे लोकमें परमेष्ठी पदको प्राप्त हुए थे और उनका शासन समस्त दुःखोंका क्षय करनेवाला था। नवम तीर्थंकर श्री सुविधि जिनके स्तवनमें अनेक दार्शनिक तत्त्वों को विवेचना की गयी है । यहाँ बतलाया गया है कि तत्-अतत्, एक-अनेक, नित्य-अनित्य इत्यादि रूप वस्तुतत्त्व प्रमाणसिद्ध है, और वह एकान्तदृष्टिका प्रतिषेधक है। स्यात् शब्द की महिमाको बतलाते हुए कहा गया है कि इसके द्वारा अपेक्षाभेदसे एक ही वस्तु में सत्-असत् आदि विरोधी धर्मोकी सिद्धि होती है। श्री सुविधि जिनका स्यात् पदयुक्त वाक्य मुख्य और गौणके भावको लिए हुए है तथा सर्वथा एकान्तवादियों के लिए अपथ्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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