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________________ प्रस्तावना स्तुतिका फल दो प्रकारका होता है-साक्षात् फल और परम्परा फल । स्तुतिका साक्षात् फल है-पुण्योत्पादक प्रशस्त परिणामोंका होना । स्तुति करनेसे स्तोताके परिणाम प्रशस्त होते हैं और उन प्रशस्त परिणामोंसे पापका क्षय और पुण्यका बन्ध होता है। स्तुति करनेका यह साक्षात् फल है । पुण्यबन्धके कारण चक्रवर्ती आदिके वैभवकी प्राप्ति तथा स्वर्गादिके सुखोंकी भी प्राप्ति होती है। यह स्तुतिका परम्परा फल है । अन्तमें ऐसा भी समय आता है जब स्तोता स्तुत्यके समान हो जाता है । इसे भी स्तुतिका परम्पराफल कह सकते हैं। स्तुतिकर्ता पहले 'दासोऽहम्' की स्थितिमें होता है। वह कहता है कि हे भगवन् ! मैं आपका दास (सेवक या भक्त) हूँ। दूसरी अवस्था वह है जब भक्त कहता है-'सोऽहम्' । जैसे जिनेन्द्रदेव हैं वैसा मैं भी हूँ। दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है । और अन्तिम अवस्था वह है जिसमें 'सः' (वह) का विकल्प छूट जाता है तथा स्तुतिकर्ता केवल 'अहम्' (मैं) के रूपमें रह जाता है । इस अवस्थामें वह और मैं का द्वैतभाव नहीं रहता है । केवल 'अहमेक्को खलु सुद्धो'का अद्वैतभाव ही रह जाता है। ___ स्तुतिके फलके प्रकरणमें यह भी दृष्टव्य है कि स्तुतिकर्ता आचार्य समन्तभद्रने चौबीस तीर्थंकरोंकी स्तुति करते समय उनसे किसी वस्तुकी याचना नहीं की । वे तो तत्त्वोंके ज्ञाता विवेकी पुरुष थे। अतः उन्होंने स्तुतिके फलस्वरूप किसी सांसारिक वस्तुकी कामना नहीं की । इसके विपरीत केवल यही भावना प्रकट की कि हे भगवन् ! आपकी स्तुतिके प्रसादसे मेरा चित्त पवित्र हो, आत्मा निर्मल हो, जिससे मैं भी आप जैसा मोक्षका पात्र बन सकें । आचार्य समन्तभद्रकी भावनाको उन्हींके शब्दोंमें देखिए। प्रथम तीर्थंकर श्री वृषभ जिनकी स्तुति करते समय उन्होंने कहा पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनो जिनः।। श्री नाभिरायके पुत्र श्री वृषभ जिन मेरे अन्तःकरणको पवित्र करें। द्वितीय तीर्थंकर श्री अजित जिनकी स्तुति करते समय उन्होंने कहा जिनश्रियं मे भगवान् विधत्ताम् । भगवान् अजित जिन मेरे लिए जिनश्री (शुद्धात्मलक्ष्मी)का विधान करें । तृतीय तीर्थंकर श्री शंभव जिनकी स्तुति करते समय उन्होंने कहा ममार्य देयाः शिवतातिमुच्चैः। हे आर्य ! आप मुझे उच्चकोटिकी शिवसन्तति (कल्याण परम्परा) प्रदान करें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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