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( २४ ) श्री वीर जिन स्तवन कीर्त्या भुवि भासि तया वीर त्वं गुणसमुत्थया भासितया । भासोडुसभासितया सोम इव व्योम्नि कुन्दशोभासितया ॥१॥ ___ सामान्यार्थ-हे वीर जिनेन्द्र ! आप गुणों से समुत्पन्न निर्मल कीर्तिसे पृथिवी पर उसी प्रकार शोभाको प्राप्त हुए हैं जिस प्रकार चन्द्रमा आकाशमें कुन्द पुष्पोंकी शोभाके समान सब ओरसे धवल और नक्षत्रोंकी सभामें स्थित ( व्याप्त ) कान्तिसे शोभित होता है ।
विशेषार्थ-चौबीसवें तीर्थंकरका नाम वीर है। इनके वर्द्धमान, महावीर, सन्मति और अतिवीर ये अन्य चार नाम भी प्रचलित हैं। श्री वीर जिनमें आध्यात्मिक और शारीरिक दोनों प्रकारके गुण विद्यमान थे। उनकी आत्मा सम्यग्दर्शनादि अथवा अनन्तज्ञानादि गुणोंसे और शरीर श्वेत रुधिर, निःस्वेदत्वादि गुणोंसे युक्त था। इन सब गुणोंके कारण उनको ख्याति इस भूतल पर सर्वत्र फैल रही थी । आकाशमें स्थित चन्द्रमा की कान्ति कुन्द पुष्पके समान धवल होती है और वह नक्षत्रों की सभा ( समूह ) में व्याप्त रहती है । अतः जिस प्रकार चन्द्रमा आकाशमें उक्त प्रकार का कान्तिसे शोभित होता है उसी प्रकार श्री वीर जिनेन्द्र अपने गुणोंसे उत्पन्न उज्ज्वल कीतिसे इस भूतल पर सुशोभित हुए हैं। यहाँ उक्त श्लोकमें 'उडुसभासितया' तथा 'कुन्दशोभासितया' इन दोनों शब्दोंमें आसित शब्द आया है । उडुसभासितमें आसितका अर्थ हैस्थित ( व्याप्त ) और कुन्दशोभासितमें आसितका अर्थ है-सब ओरसे धवल । तव जिन शासनविभवो जयति कलावपि गुणानुशासनविभवः । दोषकशासनविभवः स्तुवन्ति चैनं प्रभाकृशासनविभवः ॥ २॥ ___सामान्यार्थ-हे वीर जिन ! गुणोंके अनुशासनसे भव्य जीवोंके भवको नष्ट करनेवाले आपके शासनका माहात्म्य इस कलिकालमें भी जयनन्त है । अपनी प्रभा ( ज्ञानादि तेज ) से लोक प्रसिद्ध हरिहरादि स्वामियोंको कृश ( महत्त्वहीन ) करनेवाले तथा दोषरूप कशा ( चाबुक ) के असन ( निराकरण ) करने में समर्थ गणधरादि देव आपके इस शासनके माहात्म्यको स्तुति करते हैं ।
विशेषार्थ-ईसापूर्व छठी शताब्दीमें श्री वीर जिनेन्द्रका जन्म हुआ था। उन्होंने अर्हन्त अवस्थामें संसारके प्राणियोंको जीवादि तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूपका
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