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________________ १५४ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदोपिका नमि जिनके समक्ष कपिल, मीमांसक आदि समस्त एकान्तवादी अथवा अन्य मतावलम्बी उसो प्रकार हतप्रभ हो जाते थे जिस प्रकार निर्मल सूर्यके सामने जुगनू प्रकाशहीन हो जाते हैं । जुगनू एक लघु कीट है जो वर्षा ऋतुमें रात्रिके अन्धकारमें किंचित् प्रकाश करता है । किन्तु दिनमें सूर्य के समक्ष जुगनू प्रकाश करने में असमर्थ हो जाता है। इसी प्रकार कपिल, मीमांसक आदि एकान्तवादी परोक्षों तो अपने अभिमत तत्त्वोंका प्रचार करते रहते थे किन्तु श्री नमि जिनके समक्ष वे हतप्रभ होते थे। अर्थात् अपने द्वारा अभिमत तत्त्वोंका प्रचार करने में वे अपनेको सर्वथा असमर्थ पाते थे । ऐसा है श्री नमि जिनका माहात्म्य । विधेयं वार्य चानुभयमुभयं मिश्रमपि तद् । विशेषैः प्रत्येक नियमविषयश्चापरिमितैः ॥ सदान्योन्यापेक्षैः सकलभवनज्येष्ठगुरुणा । त्वया गीतं तत्त्वं बहुनय विवक्षेतरवशात् ॥ ३ ॥ सामान्यार्थ-हे नमि जिन ! सम्पूर्ण जगत्के महान् गुरु आपने अनेक नयों-- की विवक्षा और अविवक्षाके वशसे अस्तित्व. नास्तित्व आदि प्रत्येक धर्मको लेकर सप्तभंग नियमके विषयभूत और सदा एक दूसरेकी अपेक्षा रखनेवाले अनन्त विशेष धर्मोके द्वारा जीवादि वस्तु-तत्त्वको विधिरूप निषेधरूप, उभयरूप, अनुभय ( अवक्तव्य ) रूप और मिश्ररूप अर्थात् स्यादस्ति अवक्तव्य, स्यान्नास्ति अवक्तव्य तथा स्यादस्ति-नास्ति अवक्तव्य इस प्रकार सप्तभंगरूप कहा है। विशेषार्थ-यहाँ अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी इन तीनोंका विवेचन किया गया है । प्रत्येक वस्तुमें अस्तित्व, नास्तित्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व, स्थूलत्व, सूक्ष्मत्व, एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अनेक धर्म पाये जाते हैं । यही अनेकान्त है । इन अनेक धर्मोंका प्रतिपादन अनेक नयोंके द्वारा क्रमशः होता है । द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक, निश्चय, व्यवहार तथा नैगमादिके भेदसे नयके अनेक भेद होते हैं। एक समयमें एक नयके द्वारा वस्तुके एक धर्मका ही प्रतिपादन किया जाता है। यह प्रतिपादन वक्ताकी विवक्षा और अविवक्षाके अनुसार होता है । वक्ता जिस समय जिस नयके द्वारा जिस धर्मका प्रतिपादन करना चाहता है वह धर्म और वह नय विवक्षित या मुख्य हो जाता है। उसके अतिरिक्त अन्य धर्म और अन्य नय अविवक्षित या गौण हो जाते हैं। वस्तुमें जो अनन्त धर्म विद्यमान रहते हैं वे परस्पर सापेक्ष होते हैं, निरपेक्ष नहीं । अस्तित्व धर्म अपने प्रतिपक्षी नास्तित्व धर्मका निराकरण न करके उसकी अपेक्षा रखता है । जहाँ अस्तित्व है वहाँ नास्तित्व भी अवश्य रहता है। यह बात दूसरी है कि कभी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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