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________________ श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवन रुधिर सफेद, अत्यन्त सुगन्धित तथा मल-मूत्रकी बाधासे रहित था। इन बातोंसे ज्ञात होता है कि उनका शरीर अत्यन्त शुभ और सबके लिए आश्चर्यकारक था। उनके मन और वचनकी जो प्रवृत्ति है वह भी कल्याणकारक और आश्चर्यजनक थी। केवलज्ञान हो जाने पर उनके वचनकी दिव्यध्वनिरूप जो प्रवृत्ति होती है वह बिना इच्छाके ही होती है तथा वह सर्वभाषारूप परिणत हो जाती है । उसके द्वारा भव्य जीवोंका कल्याण तो होता ही है, साथ ही वह समस्त जीवोंके लिए आश्चर्यजनक प्रतीत होती है। उनके मनकी प्रवृत्ति भी रागादि विकारोंसे रहित होती है। इस प्रकार श्री मुनिसुव्रत जिनके वचन और मनकी प्रवृत्ति भी शिवस्वरूप और सब जीवोंके लिए आश्चर्यजनक बतलाई गई है। उपर्युक्त कथन का निष्कर्ष यही है कि मुनिसुव्रतनाथ भगवान्का शरीर, वचन तथा मन तीनों ही सबके लिए अत्यन्त शुभ, कल्याणकारक और आश्चर्यजनक थे। ४ ॥ स्थितिजनननिरोधलक्षणं चरमचरं च जगत् प्रतिक्षणम् । इति जिन सकलज्ञलाञ्छनं वचनमिदं वदतांवरस्य ते ॥४॥ सामान्यार्थ-हे मुनिसुव्रत जिन ! यह चर और अचर जगत् प्रतिक्षण ध्रौव्य, उत्पाद और व्ययरूप लक्षणसे युक्त है, ऐसा वक्ताओं में श्रेष्ठ आपका जो वचन है वह सर्वज्ञका चिह्न है । विशेषार्थ-संसारके जितने पदार्थ है उनमेंसे कुछ चेतन हैं और शेष सब अचेतन हैं । जीव द्रव्य चेतन है तथा पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पाँच द्रव्य अचेतन हैं। ये समस्त द्रव्य अथवा पदार्थ प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप हैं। द्रव्यका लक्षण सत् है। जो सत् है वह द्रव्य है । तथा जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों पाये जावें वह सत् कहलाता है । किसी भी वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य भिन्न-भिन्न समयमें नहीं रहते हैं, किन्तु तीनों एक साथ और प्रतिक्षण रहते है। जिस समय पूर्व पर्यायका नाश होता है उसी समय उत्तर पर्यायकी उत्पत्ति होती है तथा दोनों पर्यायोंमें द्रव्यका सद्भाव बराबर बना रहता है। वस्तुमें उत्पाद और व्यय पर्यायकी अपेक्षासे होते हैं और ध्रौव्य द्रव्यकी अपेक्षासे होता है। १. सद् द्रव्यलक्षणम् ।-तत्त्वार्थसूत्र ५.२९ २. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ।-तत्त्वार्थसूत्र ५.३० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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