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(२०) श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवन अधिगतमुनिसुव्रतस्थिति
निवृषभो मुनिसुव्रतोऽनघः। मुनिपरिषदि निर्बभौ भवा
नुडुपरिषत्परिवीतसोमवत् ॥१॥ सामान्यार्थ-हे मुनिसुव्रत जिन ! मुनियों के उत्तम व्रतोंकी स्थिति (स्वरूप) को अधिगत करनेवाले, मुनियोंमें श्रेष्ठ और पापरहित आप मुनियोंकी सभामें उसी प्रकार शोभाको प्राप्त हुए थे जिस प्रकार नक्षत्रोंके समूहसे परिवेष्ठित चन्द्रमा शोभाको प्राप्त होता है।
विशेषार्थ-बीसवें तीर्थंकरका नाम मुनिसुव्रतनाथ है । यह नाम सार्थक है। श्री मुनिसुव्रत जिनने मुनियोंके अट्ठाईस मूलगुणों और चौरासी लाख उत्तरगुणोंके स्वरूपको अच्छी तरहसे जान लिया था और स्वयं तदनुकूल आचरण भी किया था। इसी कारण उनका नाम मुनिसुव्रत है । वे गणधरादि मुनियोंमें श्रेष्ठ होनेके कारण मुनिवृषभ कहलाते हैं और चार घातिया कर्मरहित होनेके कारण निष्पाप हैं। ऐसे मुनिसुव्रतनाथ भगवान् समवशरण सभामें गणधरादि मुनियोंके मध्य उसी प्रकार शोभायमान हुए थे जिस प्रकार आकाशमें नक्षत्रोंके समूहके मध्य चन्द्रमा सुशोभित होता है । परिणतशिखिकण्ठरागया
कृतमदनिग्रह विग्रहाभया । तव जिन तपसः प्रसूतया
ग्रहपरिवेषरुचेव शोभितम् ॥ २॥ सामान्यार्थ-काम अथवा अहंकारका निग्रह करनेवाले हे मुनिसुव्रत जिन ! तपसे उत्पन्न हुई तथा तरुण मयूरके कण्ठके समान वर्णवाली आपके शरीरकी आभा ( कान्ति ) चन्द्रमाके परिवेष ( परिमण्डल )की आभाके समान सुशोभित हुई थी।
विशेषार्थ-श्री मुनिसुव्रत जिनने कामविकार तथा अहंकारका सर्वथा नाश कर दिया था। उनका शरीर तरुण मयूरके कण्ठके समान नील वर्णका था। वह
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