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________________ श्री अर जिन स्तवन १३७ एकान्तवादी अनेकान्तदर्शनमें उक्त प्रकारसे दोष दर्शन करने में सदा जाग्रत रहते हैं । इसके विपरीत एकान्तदर्शनमें कौन-कौन दोष आते हैं, इस विषयमें वे आँख बन्द करके गज-निमीलन जैसा व्यवहार करते हैं । हाथी मदोन्मत्त प्राणी है। वह जब मदमस्त होकर चलता है तब देखी हुई वस्तुको भी अनदेखी करता हुआ चला जाता है। इसी प्रकार एकान्तवादी एकान्तदर्शनमें अनेक दोषोंको देखता हुआ भी एकान्तवादरूप मिथ्या अभिनिवेशके कारण उन दोषोंको अनदेखा कर देता है । उन एकान्तवादियोंका परिहास करते हुए उनको यहाँ तपस्वी कहा गया है । वे तपस्वी ( बेचारे ) क्या कर सकते हैं। अर्थात् कुछ नहीं कर सकते हैं। वे न तो स्वपक्षका साधन कर सकते हैं और न परपक्षमें दूषण दे सकते हैं । ऐसे व्यक्ति अनेकान्तदर्शनकी श्री ( शोभा या लक्ष्मी ) के पात्र नहीं हैं । यहाँ यह ध्यान देनेको बात है कि एकान्तवादियों द्वारा अनेकान्तदर्शनमें जो विरोध आदि दोष बतलाये गये हैं वे सब अविचारितरम्य हैं। वस्तु स्परूपको बिना समझे ही वे दोष दिये गये हैं। जब वस्तु स्वरूपका सम्यक्रूपसे विचार किया जाता है तब वे दोष टिक नहीं पाते हैं । वस्तु जिस अपेक्षासे सत् है यदि उसी अपेक्षासे उसे असत् माना जाता तो विरोध दोषकी कल्पना करना ठोक हो सकता है । किन्तु वस्तु तो स्वरूपादिचतुष्टयकी अपेक्षासे सत् है तथा पररूपादिचतुष्टयकी अपेक्षासे असत् है । तब एक ही वस्तुमें सत् और असत्के रहनेमें विरोध कहाँ है । इस तरह विरोध दोषका परिहार हो जाता है। इसी प्रकार अन्य दोषोंका परिहार भी स्याद्वाद न्यायके द्वारा सरलतापूर्वक हो जाता है । अतः अनेकान्तदर्शन सर्वथा निर्दोष है। ते तं स्वघातिनं दोषं शमीकर्तुमनीश्वराः। त्वद्विषः स्वहनो बालास्तत्त्वावक्तव्यतां श्रिताः ॥१५॥ सामान्यार्थ हे अर जिन ! वे एकान्तवादी पूर्वोक्त स्वघातित्व दोषको दूर करनेमें असमर्थ हैं, आपसे द्वेष रखने वाले हैं, आत्मघाती हैं और बाल हैं । इसी कारण उन्होंने तत्त्वकी अवक्तव्यताका आश्रय लिया है । विशेषार्थ-पहले बतलाया गया है कि एकान्तदृष्टि स्वघाती है । असत्की सत्ता स्वीकार न करनेवाली एकान्तदृष्टि सत्की सत्ता भी सिद्ध नहीं कर सकती है । इस कारण वह स्वघाती है । और वे एकान्तवादी स्वघातित्व दोषको दूर करनेमें किसी भी प्रकार समर्थ नहीं हैं । यतः वे श्री अर जिनके अनेकान्तदर्शनसे द्वेष रखते हैं, अतः वे आत्मघाती हैं-अपने मतका घात स्वयं अपने हाथोंसे करते हैं। क्योंकि अनेकान्तवादका आश्रय लिए बिना उनका एकान्तवाद स्वतः समाप्त हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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