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________________ ११४ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदोपिका त्वमीदृशस्तादृश इत्ययं मम प्रलापलेशोऽल्पमतेमहामुने । अशेषमाहात्म्यमनीरयन्नपि शिवाय संस्पर्श इवामृताम्बुधेः ॥ ५॥ (७०) सामान्यार्थ-हे महामुने ! आप ऐसे हैं, वैसे हैं, इस प्रकार मुझ अल्पबुद्धि का यह स्तुतिरूप थोड़ा सा प्रलाप है । अमृत-समुद्रके संस्पर्शके समान आपके अशेष माहात्म्यका कथन न करते हुए भी मेरा यह थोड़ा-सा प्रलाप आपके गुणोंका संस्पर्शरूप होनेसे कल्याणके लिए होता है । विशेषार्थ-श्री अनन्त जिन महामुनि हैं-समस्त पदार्थोंके प्रत्यक्षदर्शी मुनिनाथ हैं। वे अनन्तज्ञानादि अनन्तगुणोंके समुद्र हैं। यहाँ स्तुतिकार अपनी अल्पज्ञता प्रकट करते हुए कहते हैं कि हे भगवन् ! मैं अल्पज्ञ हूँ-अल्पबुद्धिका धारक हूँ । आप गुणोंके समुद्र हैं । अल्पज्ञ मैं गुण-समुद्र आपके सम्पूर्ण माहात्म्यका वर्णन करनेमें सर्वथा असमर्थ हूँ। भक्तिवश मैं आपकी स्तुतिके रूपमें ‘आप ऐसे हैं, वैसे हैं,' इत्यादि कुछ शब्द ही कह सकता हूँ। तो भी आपकी स्तुतिरूप यह प्रलापलेश मेरे कल्याणके लिए होता है । मैं आपकी स्तुति द्वारा पुण्यका उपार्जन करता हूँ और पुण्यके उपार्जनसे सांसारिक सुखोंको प्राप्त करता हुआ अन्तमें मोक्ष सुखको भी प्राप्त कर सकता हूँ । एक अमृत-समुद्र है। हर एक व्यक्ति उसमें अवगाहन नहीं कर सकता है । फिर भी यदि कोई व्यक्ति अमृत-समुद्रका स्पर्श कर ले तो वह स्पर्श उसके लिए लाभदायक होता है । स्पर्श करनेवाला व्यक्ति अमृत-समुद्रके माहात्म्यको न कहता हुआ भी केवल उसके स्पर्शमात्रसे आनन्दको प्राप्त करता है । उसी प्रकार श्री अनन्त जिनके अनन्त गुणोंके माहात्म्यको कहने में असमर्थ होने पर भी उन गुणोंके प्रलापलेश रूप जो संस्पर्श है वह भी स्तुतिकारके कल्याणका कारण होता है । भगवान्के अनन्त गुणोंकी स्तुति तो सम्भव ही नहीं है। अतः उनके कुछ गुणोंके स्मरण या स्तवन मात्रसे भव्य जीव संसारके बन्धनसे मुक्त हो सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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