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________________ प्रकाशकीय मेरी बहुत दिनोंसे इच्छा थी कि संस्थानसे एक ऐसे ग्रन्थका प्रकाशन हो जिसका वाराणसी से विशेष सम्बन्ध रहा हो तथा जिसमें जैनधर्मके सिद्धान्तोंका प्रामाणिक विवेचन भी हो । संयोगसे आदरणीय प्रो० उदयचन्द्रजी जैन ने आचार्य समन्तभद्रके स्वयम्भस्तोत्र ( जिस स्तोत्रका प्रारम्भ स्वयम्भू शब्दसे होता है ) की हिन्दी व्याख्या संस्थानके समक्ष प्रस्तुत की जिसे उन्होंने परमपूज्य आचार्य शिरोमणि विद्यासागरकी प्रेरणासे तैयार की थी । वृषभादि महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर 'स्वयम्भू' (परोपदेशादिके बिना ही आत्मविकास करते हुए अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय रूप स्वरूपोपलब्धिको प्राप्त) कहलाते हैं। समग्ररूपसे वर्तमान चौबीस तीर्थकरोंकी इसमें स्तुति की गई है। अतएव इसका दूसरा नाम 'चतुर्विशतिजिनस्तोत्र' भी प्रसिद्ध है। ___'स्वयम्भूस्तोत्र' की रचनाके मूलमें वाराणसीमें घटित एक आश्चर्यजनक घटना है जिसके प्रभावसे शैवधर्मावलम्बी तत्कालीन राजा शिवकोटिने अपने अनुयायियोंके साथ जैनधर्म स्वीकार कर लिया था।' ___ यद्यपि सभी तीर्थंकर जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें जन्म लेकर अर्हन्त अवस्थाको समान रूपसे प्राप्त हुए हैं परन्तु उनमें पूर्वभवसापेक्ष जीवन-सम्बन्धी घटनाओंको लेकर भेद भी है। प्रस्तुत स्तोत्रमें उन घटनाओंका भी कहीं-कहीं (प्रथम, सोलहवें, बाईसवें और तेईसवें तीर्थकरके स्तवनमें) उल्लेख मिलता है । अन्यत्र अनेकान्त, स्याद्वाद, अहिंसा आदि जैनधर्मके प्रमुख सिद्धान्तोंका विशेषरूपसे गूढ तथा सयुक्तिक विवेचन है। जैसा कि आचार्य प्रभाचन्द्रने स्वयम्भूस्तोत्र की संस्कृत टीका करते हुए कहा है यो निःशेषजिनोक्तधर्मविषयः श्रीगौतममायैः कृतः । सूक्तार्थेरमलैः स्तवोऽयमसमः स्वल्पैः प्रसन्नैः पदैः ॥ काव्यत्वके गुणोंसे परिपूर्ण इस स्तुतिकाव्यमें भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोगका समन्वय दिखलाया गया है । आचार्य समन्तभद्र स्वयं भी एक आदर्श भक्तियोगी, शानयोगी और कर्मयोगी थे। इन तीनोंका समन्वय ही जैनधर्मका लक्ष्य है । जैसा कि आचार्य उमास्वामीने तत्वार्थसूत्रके प्रथमसूत्र में कहा है सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। १. घटनाके विस्तृत विवरण हेतु देखें, इसी ग्रन्थकी प्रस्तावना, पृ० १४-१६. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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