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________________ १०० स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका रहता है, किन्तु उसमें उपादानकी क्रिया करनेकी शक्ति नहीं होती है । जब-जब उपादानके द्वारा कार्य होता है तब-तब तदनुकूल निमित्त भी स्वयं मिल जाते हैं, ऐसा दोनोंमें सहज सम्बन्ध है । यथार्थमें निमित्तोंके अनुसार कार्य नहीं होता है, वह तो उपादानकी योग्यताके अनुसार ही होता है। जो लोग ऐसा कहते हैं कि जब जैसे निमित्त मिलते हैं तब वैसा कार्य होता है, तो यहाँ उनका कथन पारमार्थिक न होकर असद्भूत व्यवहारनयकी अपेक्षासे समझना चाहिए । निमित्तके बिना कार्य नहीं होता है, ऐसा कहना तो ठीक है, किन्तु इतने मात्रसे निमित्तमें कर्तृत्व नहीं आ जाता है। अतः परमार्थसे निमित्त कार्यका कर्ता नहीं है । इस प्रकरणमें आचार्य अमृतचन्द्रका पुरुषार्थसिद्धयुपायमें निम्नलिखित कथन ध्यान देने योग्य है-- जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ।। १२ ।। अर्थात् कार्मण वर्गणारूप पुद्गल स्कन्ध जीवकृत रागादि परिणामोंका निमित्तमात्र प्राप्तकर स्वयं ही ज्ञानावरणादि कर्मरूपसे परिणत हो जाते हैं । यहाँ 'स्वयमेव परिणमन्ते' पद द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक पदार्थ अपने उपादानकी योग्यताके अनुसार स्वयं ही कार्यरूप परिणमन करता है । उस परिणमनमें अन्य पदार्थ तो केवल निमित्त होता है। उसमें उपादानगत परिणमन करानेकी शक्ति नहीं है । इसका तात्पर्य यह है कि निमित्त कारण उपादानके द्वारा होनेवाले कार्य में कुछ भी सहायता नहीं करता है। फिर भी निमित्तकी उपस्थिति अनिवार्यरूपसे रहती है। बाह्य वस्तु तो कार्यकी उत्पत्तिमें निमित्तमात्र है, किन्तु कार्य तो उपादानरूप द्रव्यमें पर्यायगत योग्यताके द्वारा ही होता है। अतः दो द्रव्योंमें जो निमित्त-नैमित्तक सम्बन्ध बतलाया गया है उसे असद्भत व्यवहारनयकी अपेक्षासे ही समझना चाहिए । उक्त कथन का निष्कर्ष यह है कि निश्चयनयसे उपादान कारण ही कार्यका कर्ता होता है। इसलिए 'अभ्यन्तरं केवलमप्यलं ते' ऐसा कथन जैनसिद्धान्तके अनुकूल है । चाहे गुणकी उत्पत्ति हो या दोषकी उत्पत्ति हो, प्रत्येक कार्यकी उत्पत्तिमें मूलकारण उपादान ही कार्यकारी होता है और निश्चयनयसे उसीमें कतत्वका विधान किया जाता है। व्यवहारनयसे निमित्तका अस्तित्व मानना आवश्यक है, किन्तु निमित्त कारणमें त्रिकालमें भी कतत्व संभव नहीं है । इसी भावको पृष्ठ ९८ पर चतुर्थ श्लोकके चतुर्थ चरण द्वारा प्रदर्शित किया गया है इस सन्दर्भ में आचार्य पूज्यपाद रचित इष्टोपदेशका निम्नलिखित कथन भी दृष्टव्य है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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