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________________ श्री वासुपूज्य जिन स्तवन ९७ मल दूर हो जाता है और चित्त पवित्र हो जाता है। दूसरा लाभ यह है कि पूजा करते समय शुभ परिणामों द्वारा पुण्यबन्ध होता है और पुण्यबन्ध द्वारा सुखादि इष्ट फलकी प्राप्ति होती है । अतः भगवान्की पूजा करना व्यर्थ नहीं है। उपलब्ध प्रतियोंमें इस श्लोकके चतुर्थ चरणमें 'पुनातु' ऐसा पाठ है । किन्तु यहाँ जो प्रकरण है उसके अनुसार 'पुनाति' शब्दका प्रयोग उपयुक्त प्रतीत होता है । श्री अर जिन स्तवनके द्वितीय श्लोकमें भी इसी प्रकरणमें पुनाति शब्दका प्रयोग किया गया है। प्रकरण यह है कि जब भगवान् पूजा करनेसे प्रसन्न नहीं होते हैं तो हम उनकी पूजा क्यों करते हैं ? इसका सीधा उत्तर यह है कि उनकी पूजा करनेसे हमारा चित्त पवित्र होता है, इसलिए हम उनकी पूजा करते हैं। तात्पर्य यह है कि भगवान्के पुण्य गुणोंका स्मरण हमारे चित्तको पाप-मलोंसे पवित्र करता है । पुनातिका अर्थ है-पवित्र करता है और पुनातु का अर्थ हैपवित्र करे । श्री मुख्तार सा०ने पुनाति शब्दका ही प्रयोग किया है । पूज्य जिनं त्वार्चयतो जनस्य सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ। दोषाय नालं कणिका विषस्य न दूषिका शीतशिवाम्बुराशौ ॥ ३ ॥ सामान्यार्थ-हे जिन ! इन्द्र आदिके द्वारा पूज्य और कर्म शत्रुओंको जीतनेवाले आपकी पूजा करनेवालेको जो लेशमात्र पाप होता है वह बहुत भारी पुण्यराशिमें दोषके लिए समर्थ नहीं है। जैसे कि विषकी एक कणिका शीतल तथा कल्याणकारी जलसे भरे हुए समुद्रको दूषित नहीं कर सकती है । विशेषार्थ-पूजा दो प्रकारकी होती है-द्रव्य पूजा और भाव पूजा। जल, चन्दन आदि अष्ट द्रव्योंसे जो पूजा की जाती है वह द्रव्य पूजा है तथा पवित्र भावोंसे भगवान्के पुण्य गुणोंका स्मरण करना, स्तुति करना, वन्दना करना इत्यादि भाव पूजा है। गृहस्थ मुख्य रूपसे द्रव्य पूजा करते हैं। वे भाव पूजा भी कर सकते हैं। द्रव्य पूजा करनेका एक लाभ यह है कि अष्ट द्रव्योंके अवलम्बनसे पूजकका मन पूजामें लगा रहता है । मुनि या साधु परिग्रह रहित होनेके कारण भाव पूजा ही करते हैं । द्रव्य पूजाके लिए जलादि सामग्री एकत्रित करते समय पूजकके द्वारा थोड़ी द्रव्यहिंसा होना संभव है। यही सावद्यलेश (लेशमात्र पाप) है । भावपूजा करते समय मुनिके भी सरागपरिणतिरूप सावद्यलेश होता है । मुनि अवस्थामें सराग परिणाम होना भी अल्प पाप या हिंसा है। किन्तु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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