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________________ ९० स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका पित किया है-(१) 'श्रेयःप्रजाः शासत्', यहाँ श्रेयः शब्द प्रजा शब्दके साथ मिलकर एक पद बनाता है। अतः श्रेयःप्रजाः का अर्थ है - भव्य जीव । (२) 'प्रजाः श्रेयः शासत्', यहाँ श्रेयः शब्द प्रजा शब्दसे पृथक् है । श्रेयः का अर्थ हैहित अथवा कल्याण । श्रेयः शब्दको प्रजाः शब्दसे पृथक् रखना ही ठीक है। 'प्रजाः श्रेयः शासत्' का अर्थ होता है-श्री श्रेयांस जिनने प्रजाजनोंको हितका उपदेश दिया। विधिविषक्तप्रतिषेधरूपः प्रमाणमत्रान्यतरत् प्रधानम् । गुणोऽपरो मुख्यनियामहेतु नयः स दृष्टान्तसमर्थनस्ते ॥२॥ सामान्यार्थ-हे श्रेयांस जिन ! आपके मतमें कथंचित् प्रतिषेधरूप विधि प्रमाणका विषय है । विधि और प्रतिषेध दोनोंमेंसे कोई एक प्रधान और दूसरा गौण होता है । और मुख्यका जो नियामक होता है वह नय है । वह नय दृष्टांतसे समर्थित होता है अथवा दृष्टान्तका समर्थक होता है । विशेषार्थ-जैनदर्शनमें प्रमाण और नयके द्वारा वस्तुतत्त्वका अधिगम होता है । यहाँ विधि और निषेधका प्रकरण है। अतः जो पदार्थके विधि और निषेध दोनों रूपोंको ग्रहण करता है वह प्रमाण है और उक्त दोनों रूपोंमेंसे एक रूपको ग्रहण करनेवाला नय कहलाता है । पदार्थके विधि और निषेध ये दो प्रमुख धर्म हैं । स्वरूपादिचतुष्टयकी अपेक्षासे अस्तित्वका नाम विधि है और पररूपादिचतुष्टयकी अपेक्षासे नास्तित्वका नाम निषेध है। विधि और निषेधका पदार्थके साथ तादात्म्य सम्बन्ध है तथा इन दोनों धर्मोंका परस्परमें भी तादात्म्य सम्बन्ध है । जो विधि तादात्म्य सम्बन्धसे प्रतिषेधके साथ सम्बद्ध है वह प्रमाण है । अथवा जो प्रतिषेध तादात्म्य सम्बन्धसे विधिके साथ सम्बद्ध है वह प्रमाण है। अर्थात् विधि और प्रतिषेध दोनों मिलकर प्रमाण हैं। यहाँ प्रमाणका विषय होनेके कारण विधि और निषेधको उपचारसे प्रमाण कहा गया है । विधि और निषेध इन दोनों धर्मासे वक्ताकी विवक्षाके अनुसार कोई एक धर्म प्रधान होता है और दूसरा धर्म गौण हो जाता है । जब अस्तित्व प्रधान होता है तब नास्तित्व गौण हो जाता है और जब नास्तित्व प्रधान होता है तब अस्तित्व गौण हो जाता है । दो धर्मों में जो मुख्य और गौण की व्यवस्था होती है वह वक्ताके अभिप्रायके अनुसार होती है । वस्तुके स्वरूपके अनुसार मुख्य और गोणकी व्यवस्था नहीं होती है । वस्तुके स्वरूपके अनुसार किसी धर्मको प्रधान अथवा गौण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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