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________________ श्री शीतल जिन स्तवन ८५ क्षणिक है । इसके विपरीत श्री शीतल जिनके वचनोंसे प्राप्त होनेवाली शीतलता आध्यात्मिक है और स्थायी है । इस श्लोक के तृतीय चरण में 'अनघवाक्यरश्मयः' इस एक पदके स्थान में 'अनघ' और 'वाक्यरश्मयः' ऐसे दो पद भी किये गये हैं । ऐसा करनेपर अनघ पद श्री शीतल जिनका सम्बोधन हो जाता है । तब इस प्रकार कहेंगे — हे अनघ (निर्दोष) शीतल जिन ! किन्तु 'अनघवाक्यरश्मयः' इस एक पदमें अनघ शब्द 'वाक्यरश्मयः' का विशेषण है । 'अनघवाक्यरश्मयः' का अर्थ है -- निर्दोष वचन - रूप किरणें । सुखाभिलाषानलदाहमूच्छितं मनो निजं ज्ञानमयामृताम्बुभिः । व्यदिव्यपस्त्वं विषदाहमोहितं यथा भिषग्मन्त्रगुणैः स्वविग्रहम् ॥ २ ॥ सामान्यार्थ - हे शीतल जिन ! जिस प्रकार वैद्य विषके दाहसे मूच्छित अपने शरीरको मन्त्रके गुणोंसे निर्विष एवं मूर्च्छारहित कर लेता है उसी प्रकार आपने सांसारिक सुखोंकी अभिलाषारूप अग्निके दाहसे मूच्छित अपने मनको ज्ञानमय अमृत जलके द्वारा मूर्च्छारहित ( शान्त) किया है । विशेषार्थ - किसी वैद्य ने भूलसे विष पान कर लिया और विषजन्य संतापसे उसका शरीर मूच्छित हो गया । तदनन्तर कुछ होश आनेपर वह वैद्य विषापहारमन्त्रका स्मरण और उच्चारण करते हुए मंत्रके गुणों (अमोघ शक्तियों) के द्वारा अपने शरीरको विष रहित और मूर्च्छारहित कर लेता है । यह तो हुई दृष्टान्त की बात । इस प्रकरणमें अब यहाँ संसारी जीवोंकी स्थिति पर विचार करना है । संसारी प्राणियों को सदा सुखको अभिलाषा बनी रहती है । चक्रवर्ती, इन्द्र आदिका सुख मुझे प्राप्त हो ऐसी तृष्णा सदैव विद्यमान रहती है । सुखाभिलाषा संतापका कारण होनेसे अग्निके समान है । सुखाभिलाषारूप अग्निसे चतुर्गतियोंमें भ्रमण करते हुए इस जीवको दाह (संताप ) होता है और उसके द्वारा मन मूच्छित ( हेयोपादेय के विवेकसे रहित ) हो जाता है । श्री शीतलनाथ जिनका मन ( आत्मस्वरूप ) भी जिन बननेके पहले इसी प्रकार विषयाभिलाषारूप अग्निके दाहसे मूच्छित था । ऐसे मूच्छित (मोहित) आत्मस्वरूपको श्री शीतल जिनने ज्ञानमय अमृत जलके सिंचनसे मोहरहित और शान्त कर लिया था । यहाँ उपलक्षणसे ज्ञान शब्दके द्वारा दर्शन और चारित्र शब्द का भी ग्रहण करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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