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________________ बरुआसागर में विविध समारोह 407 चलकर बरुआसागर आ गया। बीच में चिदानन्द ब्रह्मचारी का समागम छूट गया था। वे यहाँ आ मिले । यहाँ पर बाबू रामस्वरूप जी के यहाँ सानन्दसे रहने लगा। इस प्रकार बुन्देलखण्डके इस पैदल पर्यटन से आत्मा में अपूर्व शान्ति आई। बरुआसागर में विविध समारोह इस प्रकार टीकमगढ़से भ्रमण करता हुआ बरुआसागर आ पहुँचा और स्टेशन से कुछ ही दूर बाबू रामस्वरूप जी ठेकेदार के नवीन भवन में ठहर गया। बाबू साहब से मेरा बहुत काल से परिचय है। परिचयका कारण इनकी निर्मल और भद्र आत्मा है। यह वही बरुआसागर है जहाँ पर मेरी आयु का बहुत भाग बीता है। यहाँ की आव-हवा बहुत ही सुन्दर है। यहाँ पर श्री स्वर्गीय मूलचन्द्र जी द्वारा एक पार्श्वनाथ विद्यालय स्थापित हुए १५ वर्ष हो चुके हैं। यहाँ की प्राकृतिक सुषमा निराली है। सुरम्य अटवीके बीचों-बीच एक छोटी-सी पहाड़ी है। उसके पूर्व भाग में बहुत सुन्दर बाग है, उत्तर में महान् सुरम्य सरोवर है, पश्चिम में सुन्दर जिनालय और दक्षिण में रमणीय अटवी है। पहाड़ी पर विद्यालय और छात्रावास के सुन्दर भवन बने हुए हैं । स्थान इतना सुन्दर है कि प्रत्येक देखनेवाला प्रसन्न होकर जाता है। पार्श्वनाथ विद्यालय के सभापति श्री राजमल्लजी साहब हैं, जो कि बहुत ही योग्य व्यक्ति हैं। आपके पूर्वज लश्करके थे, पर आप वर्तमान में झाँसी रहते हैं। बड़े कुशल व्यापारी हैं। आपके छोटे भ्राता चांदमल्लजी साहब हैं, जो बहुत ही योग्य हैं और जैनधर्म में अच्छा बोध भी रखते हैं। आपका एक बालक वकील है। उसकी भी धर्म में अच्छी रुचि है। इस पाठशाला के मन्त्री श्री मुन्नालालजी वकील हैं। आपका निवास बरुआसागर है। आप नायक वंशके हैं तथा बहुत उद्योगी हैं। आपने वकालत छोड़कर कृषि में बहुत उन्नति की हैं। यदि इस उद्योग में निरन्तर लगे रहे तो बहुत कुशल हो जावेंगें। वकील होने पर भी वेषभूषा बहुत साधारण रखते हैं। आप में कार्य करने की क्षमता है। यदि थोड़ा समय परोपकार में लगा देवें तो एक नहीं अनेक पाठशालाओं का उद्धार आप कर सकते हैं। आपके पिता बालचन्द्र नायक हैं, जो बहुत सज्जन धर्मात्मा हैं। आप उस प्रान्त के सुयोग्य पंच हैं। यद्यपि अब वृद्ध हो गये हैं तथापि धार्मिक कार्यों में कभी शिथिल नहीं होते। इसी प्रकार विद्यालय के कार्यकर्ता गयासी लाल चौधरी हैं। आप भी बहुत चतुर व्यक्ति हैं। आप निरन्तर पूजा तथा स्वाध्याय करते हैं। कुशल व्यापारी हैं। आपके कई भतीजे अत्यन्त चतुर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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