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________________ सागरमें शिक्षण-शिविर 393 श्रीमुन्नालालजी वैशाखिया तथा पं. मुन्नालालजी समगौरया मोटरसे आये और यह निश्चय करके गये कि सागरमे विद्वत्परिषद्की ओरसे जो शिक्षण-शिविर चल रहा है उसमें आप अवश्य पधारें। मैंने भी जानेका निश्चय कर लिया, क्योकि मैं स्वभावतः विद्वानोंके समागमका प्रेमी हूँ। शाहगढ़से चलकर पाँच मीलपर एक ग्राममें रह गये। गर्मीके दिन थे, अतः बहुत गर्मी पड़ती थी। दोपहरको बड़ी बेचैनी रही। रात्रिको कुछ निद्रा आई। यहाँसे छ: मील चलकर कोटके ग्राम आये। सानन्द दिन बीता। यहाँपर भी बहुत गर्मी थी। यहाँसे प्रातःकाल चलकर रुरावन आ गये। यहींपर भोजन हुआ। पश्चात् चलकर दलपतपुर आ गये। यहाँपर सिंघई राजकुमारके यहाँ भोजन किया। यहाँ पाठशालाके लिए पच्चीस सौ रुपया के अन्दाज चन्दा हो गया। एक महाशयने पन्द्रह सौ रुपया दिये। यहीं पर पं. बंशीधरजी सिद्धान्तशास्त्री इन्दौरवाले आये थे। आपके समागमसे चित्त प्रसन्न हुआ। आपके साथ सिंघई डालचन्द्रजी सागर भी थे। यहींपर कान्तिलालजी नागपुरवाले आये थे। आप पैदल आये थे। उस समय आप रेलवेके सिवाय अन्य किसी वाहनपर नहीं बैठते थे और अब तो वह भी छोड़ दी है। आपको जैनधर्मकी अकाट्य श्रद्धा है। यहाँसे चलकर हम लोग बीचमें ठहरते हुए सागर आ गये। पहलेकी भाँति अनेक महाशय गाजे-बाजेके साथ लेनेके लिए दो मील दूर तक आये। सागरमें शिक्षण-शिविर चल रहा था, जिसमें पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री बनारस, पं. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य बनारस, पं. राजेन्द्रकुमारजी मथुरा, ज्योतिषाचार्य पं. नेमिचन्द्रजी आरा, सिद्धान्तशास्त्री पं. फूलचन्द्रजी बनारस, पं. देवकीनन्दनजी व्याख्यानवाचस्पति इन्दौर आदि अनेक विद्वान् पधारे थे। पं. वंशीधरजी साहब भी पधारे थे। पर वे कार्यवश मेरे सागर आनेके पूर्व ही इन्दौर चले गये थे। प्रातःकाल सामूहिक व्यायाम होता था। फिर स्नान तथा पूजनके बाद शास्त्रप्रवचन होता था, जिसमें आगत विद्वानोंके सिवाय नगरके समस्त प्रतिष्ठित पुरुष सम्मिलित होते थे। मध्याह्नोपरान्त शिक्षणपद्धतिकी शिक्षा दी जाती थी। रात्रिको तत्त्वचर्चा तथा व्याख्यानसभा होती थी। शिक्षणशिविर एक माह तक चालू रहा, जिसकी पूर्ण व्यवस्था पन्नालालजी साहित्याचार्यने बड़ी तत्परताके साथ की थी। मैं अन्तकालमें पहुंचा था। मेरे समक्ष चार दिन ही शिक्षणशिविरका कार्यक्रम चला। इन्ही चार दिनोंमें विद्वत्परिषदकी कार्यकारिणीकी बैठक हुई। 'संजद' पदकी चर्चा हुई, जिसमें श्री पं. फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीका तेरानवें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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