SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कटनीमें विद्वत्परिषद 381 आपके दो चचेरे भाई हैं। परस्पर प्रेम बहुत है। मेरा तो इस कुटुम्बसे चालीस वर्षसे सम्बन्ध है। इनके द्वारा सदा मेरे धर्मसाधनमें कोई बाहृा त्रुटि नहीं होने पाती। एक बार जब ये गिरिराजकी यात्राके लिये गये तब मैं ईसरीमें धर्मसाधन करता था। आपकी मातेश्वरीने मेरा निमन्त्रण किया और अन्तमें जब भोजनकर मैं अपने स्थानपर आने लगा तब आपने बड़े आग्रहके साथ कहा कि आजीवन मेरा निमंत्रण है। मैंने बहुत कुछ निषेध किया, परन्तु एक न चली। जब मैंने दसमी प्रतिमा ले ली तभी आपका निमन्त्रण पूर्ण हुआ। यहाँ एक बात और उल्लेखनीय है जिसे पढ़कर मनुष्य बहुतसी कल्पनाएँ करेंगे। बहुतसे यह कहेंगे कि वर्णीजीको चरणानुयोगका कुछ भी बोध नहीं और इसे मैं स्वीकार भी करता हूँ। बहुतसे कहेंगे दयालु हैं और बहुतसे कहेंगे कि मानके लिप्सु हैं। कुछ भी कहो, पर बात यह है-मैं भोजनकर बागमें जा रहा था। बीचमें एक वृद्धा शिरके ऊपर घासका गट्ठा लिये बेचने जा रही थी। एक आदमीने उस घासका साढ़े तीन आना देना कहा। बुढ़ियाने कहा-'चार आना लेवेंगे।' वह साढ़े तीन आनासे अधिक नहीं देता था। मुझसे न रहा गया। मैने कहा-'भाई घास अच्छी है, चार आना ही दे दो। बेचारी बुढ़िया खुश होकर चली गई। उसके बाद स्टेशनके फाटकपर आया । वहाँपर बुड्ढा ब्राह्मण सत्तूका लोंदा बनाये बैठा था। मैने कहा-'बाबाजी सत्तू क्यों नही खाते ?' वह बोला-'भैया पानी नहीं हैं। मैने कहा-'नलसे ले आओ।' वह कहने लगा-'नल बन्द हो गया है। मैने कहा-'कूपसे लाओ। वह बोला-'डोरी नहीं है। मैंने कहा- 'उस तरफ नल खुला होगा, वहाँसे ले आओ।' बुड्ढेने कहा-'सत्तूको छोड़कर कैसे जाऊँ ?' मैंने कहा-'मैं आपके सामानकी रक्षा करूँगा। आप सानन्द जाइये। वह उस पार गया, परन्तु वापिस आकर बोला कि वहाँ भी पानी नहीं मिला। मैंने कहा-'मेरे कमण्डलूमें पानी है, जो स्वच्छ है और आपके पीने योग्य हैं।' उसने प्रसन्नतापूर्वक जल ले लिया और आशीर्वाद देकर कहने लगा कि 'यदि भारतवर्षमें यह भाव हो जावे तो इसका उत्थान अनायास ही हो जावे।' जब मेला पूर्ण होनेको आया और जब मैं जबलपुरवालोंके आग्रहवश कटनीसे चलने लगा। तब वहाँकी समाजको बहुत ही क्षोभ हुआ, परन्तु क्या करूँ। पंडित कस्तूरचन्द्रजी ब्रह्मचारीने, जो कि जबलपुरके प्रसिद्ध पण्डित ही नहीं, वक्ता भी है, मुझे अपने चक्र में फँसा लिया, जिससे मन न होने पर भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy