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________________ श्रीबाईजीकी आत्मकथा 299 जिस परिग्रहके त्यागके लिए अच्छे-अच्छे जीव तरसते हैं और मरते-मरते उससे विमुक्त नहीं हो पाते, पति के वियोगसे वह व्रत मेरे सहजमें हो गया । मैंने नियम लिया कि जो सम्पत्ति मेरे पास है उससे अधिक नहीं रखूँगी तथा यह भी नियम किया कि मेरे पतिकी जो पचास हजार रुपयाकी साहुकारी है उसमें सौ रुपया तक जिन किसानों के ऊपर है वह सब मैं छोड़ती हूँ तथा सौ रुपयासे आगे जिनके ऊपर है उनका ब्याज छोड़ती हूँ। वे अपनी रकम बिना ब्याज के अदा कर सकते हैं । आजसे एक नियम यह भी लेती हूँ कि जो कुछ रुपया किसानों से आवेगा उसे संग्रह न करूँगी, धर्मकार्य और भोजनमें व्यय कर दूँगी। आप लोगोंसे मेरी सादर प्रार्थना है कि आजसे यदि आप लोग मेरे यहाँ आवें तो दोपहर बाद आयें, प्रातःकाल का समय मैं धर्म कार्यमें लगाऊँगी | .. कृषक महाशय मेरी इस प्रवृत्तिसे बहुत प्रसन्न हुए । इधर राज्यमें यह वार्ता फैल गई कि सिमरावाली सिंघैनका पति गुजर गया है, अतः उसका धन राज्यमें लेना चाहिये और उसकी परवरिशके लिये तीस रूपया मासिक देना चाहिये । किन्तु जब राजदरबार में यह सुना गया कि वह तो धर्ममय जीवन बिता रही है जब राज्यसे तहसीलदारको परवाना आया कि उसकी रक्षाकी जावे, उसका धन उसीको दिया जावे और जो किसान न दे वह राज्यसे वसूलकर उसको दिया जावे।... इस प्रकार धनकी रक्षा अनायास हो गई। इसके बाद मैंने सिमराके मन्दिरमें संगमरमरकी वेदी लगवाई और उनकी प्रतिष्ठा बड़े समारोहके साथ करवाई। दो हजार मनुष्योंका समारोह हुआ तीन दिन पंक्ति भोजन हुआ। दूसरे वर्ष शिखरजीकी यात्रा की । इस प्रकार आनन्दसे धर्म ध्यानमें समय बीतने लगा। एक चतुर्मास में श्रीयुत मोहनलाल क्षुल्लकका समागम रहा । प्रतिदिन दस या पन्द्रह यात्री आने लगे, यथाशक्ति उनका आदर करती थी । इसी बीच में श्री गणेशप्रसाद मास्टर जतारासे आया। उसके साथमें पं. कड़ोरेलाल भायजी तथा पं. मोतीलालजी वर्णी भी थे। उस समय गणेशप्रसादकी उमर बीस वर्षकी होगी । उसको देखकर मेरा उसमें पुत्रवत् स्नेह हो गया। मेरे स्तनसे दुग्धधारा बह निकली। मुझे आश्चर्य हुआ, ऐसा लगने लगा मानों जन्मान्तर का यह मेरा पुत्र ही है। उस दिनसे मैं उसे पुत्रवत् पालने लगी । वह अत्यन्त सरल प्रकृतिका था । मैंने उसी दिन दृढ़ संकल्पकर लिया कि जो कुछ मेरे पास है वह सब इसीका है और अपने उस संकल्प के अनुसार मैंने उसका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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