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________________ श्रीबाईजीकी आत्मकथा 297 पिता मौजीलाल एक व्यापारी थे । शिकोहाबादमें उनकी दुकान थी । वह जो कुछ उपार्जन करते उसका तीन भाग बुन्देलखण्डसे जानेवाले गरीब जैनोंके लिए देते थे । उनकी आय चार हजार रुपया वार्षिक थी । एक हजार रुपया गृहस्थी कार्यमें खर्च होता था । एक बार श्रीगिरिराजकी यात्राके लिए बहुतसे जैनी जा रहे थे। उन्होंने श्रीमौजीलालजीसे कहा कि 'आप भी चलिये। आपने उत्तर दिया कि मेरे पास चार हजार रुपया वार्षिक आय है, तीन हजार रुपया मैं अपने प्रान्त के गरीब लोगोंको दे देता हूँ और एक हजार रुपया कुटुम्बके पालनमें व्यय हो जाता है, इससे नहीं जा सकता । श्रीभगवान्‌की यही आज्ञा है कि जीवों पर दया करना । उसी सिद्धान्त की मेरे दृढ़ श्रद्धा है । जिस दिन पुष्कल द्रव्य हो जावेगा उस दिन यात्रा कर आऊँगा ।' Jain Education International 'मेरे पिताका मेरे ऊपर बहुत स्नेह था । मेरी शादी सिमरा ग्रामके श्रीयुत सिं० भैयालालजी के साथ हुई थी । जब मेरी अवस्था अठारह वर्षकी थी तब मेरे पति आदि गिरनारकी यात्राको गये। पावागढ़ में मेरे पतिका स्वर्गवास हो गया, मैं उनके वियोगमें बहुत खिन्न हुई, सब कुछ भूल गई । एक दिन तो यहाँतक विचार आया कि संसारमें जीवन व्यर्थ है । अब मर जाना ही दुःखसे छूटनेका उपाय है। ऐसा विचार कर कुएँके उपर गई और विचार किया कि उसीमें गिरकर मर जाना श्रेष्ठ है । परन्तु उसी क्षण मनमें विचार आया कि यदि मरण न हुआ तो अपयश होगा और यदि कोई अंग भंग हो गया तो आजन्म उसका क्लेश भोगना पड़ेगा; कुएँसे पराङ्मुख होकर डेरापर आ गई और धर्मशालामें जो मन्दिर था उसीमें जाकर श्रीभगवान् से प्रार्थना करने लगी कि - हे प्रभो ! एक तो आप हैं जिनके स्मरण से जीवनका अनन्त संसार छूट जाता है और एक मैं हूँ जो अपमृत्यु कर नरक मार्गको सरल कर रही हूँ। 'हे प्रभो ! यदि आज मर जाती तो न जाने किस गतिमें जाती ? आज मैं सकुशल लौट आई तो यह आपकी ही अनुकम्पा है। संसार में अनेक पुरुष परलोक चले गये। उनसे मुझे कोई दुःख नहीं हुआ पर आज पतिवियोग के कारण असह्य वेदना हो रही है और इसका कारण मेरी उनमें ममता बुद्धि थी । अर्थात् ये मेरे हैं और मैं इनकी हूँ यही भाव दुःखका कारण था । जब तत्त्वदृष्टिसे देखती हूँ तब ममता बुद्धिका कारण भी अहम्बुद्धि है ऐसा स्पष्ट प्रतीत होने लगता है । अर्थात् 'अहमस्मि’– जब यह बुद्धि रहती है कि मैं हूँ तभी परमें 'यह मेरा है' यह For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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